Tuesday, October 21, 2008

कामाने-खाने की जद्दोजहद

कमाना खाना है तो सहना भी है...
जी हां... यही कुछ आवाज आ रही है मुंबई में कमाने-खाने गए उत्तर भारतीयों के दबे दिल से...
राज ठाकरे...उसी ओछीं राजनीति की उपज जिसकी नींव कभी चाचा बाल ठाकरे ने रखी थी। आज वही बात फिर से सामने आई है, लेकिन मराठी मानुस की दुहाई देने वाले चाचा भतीजे को शायद ये नही पता की उस मराठी जनता में से कितने लोग मुंबई महानगर में मजदूरी करने के लिए आते है? शहर में जो भी मेहनत कश तबका है उसमें कितने प्रतिशत मराठी मानुसों की भूमिका है? ये बात सत्य है कि हम लोग अपने घर में कोई भी छोटा काम नही करते, क्योंकि हमारी मनोस्थिति ऐसी बन चुकी है, कोई भी इंसान अपने घर में, या शहर में, गांव में, कोई ऐसा काम नही करता है जो कि उसे किसी अपने या परिचित की नजरों में छोटा साबित करे। तो ये हमारी फितरत में है कि हम अपने अपनों से दूर हो कर कैसा भी काम करने को तैयार हो जाते है, इसमें मराठी या उत्तर भारतीय होनें की बात नहीं, किसी भी इंसान के संदर्भ में ये बात स्वाभाविक है। मराठी मानुस भी जो है, वो गोवा, वडोदरा, राजकोट में काम करने के लिए जाते है, विदेशों में भी जाते है, वहां शायद उन्हें वो काम करना पड़ता है जो कि यू.पी, बिहार का आदमी आकर मुंबई में करता है।
देश के सबसे विकसित राज्य पंजाब को ही लें...हर वर्ष यहां से सैंकड़ों युवक कनाडा, लंदन, अमेरिका
काम करने के लिए जाते है, वहां भी उनमे से अधिकतर लोग छोटा-मोटा काम करके अपना गुजारा चलाते है, कोई ड्राइवरी करता है तो कोई किसी रेस्तरां में काम करता है। पर शायद अपने देश या राज्य
में हमें ऐसा करते शर्म महसूस होती है।
और आप जैसे नेताओं को मौका मिल जाता है कुछ करने का और अपने पैर फैलाने का, लेकिन शायद आपको ये अंदाज नहीं होता कि आपकी इस ओछीं राजनीति का असर उस मराठी मानुस पर भी पड़ता
है जो अपने घर से दूर कहीं ओर काम करने के लिए गया हुआ है...

1 comment:

makrand said...

sahi kaha aapne
regards