Saturday, October 4, 2008

'लखटकिया के जाने का दुख'

एक खबर - टाटा की लखटकिया कार का सपना देखने वालों के लिए बुरी खबर थी की ' टाटा मोटर्स ने सिंगूर से अपने हाथ खींच लिए'। सोचने वाली बात यह भी थी की ये सपना देखा किसने? क्या ये सपना उस आदमी ने देखा जो उसी बंगाल, बिहार का है जहा आधा साल तो प्राकृतिक आपदाएं कहर ढ़ाती है, और आधे साल


नेता उत्पात मचाते है। पीड़ा देने वाली बात यह है कि यह सब वही अखबार लिख रहा था जो कभी मजदूरों, किसानों का पैरोकार माना जा रहा था। पता नही कहा गई वो नैतिकता अब...
और तर्क भी देखिए, 'अब सिंगूर का औद्योगिकीकरण रुक जाएगा, इससे वहां के लोगों के सपने हुए चूर-चूर'। अरे भाई किसके सपने हुए चूर... गरीब किसान के जिसे अपनी भूमि देनी पड़ रही थी, या की उसके जिसके सिंगूर में अपना मोटर साइकिल का शोरूम खोलना था, या की उन बैंको के जिन्होनें सिंगूर में अपनी शाखाएं बढ़ाकर 2 से 7 कर दी थी। कभी कॉमरेडो को अगर सबसे ज्यादा किसी से सरोकार होता था, तो वो था मजदूरों से किसानों से, गरीब और दलित वर्ग से। लेकिन अब शायद सरोकार की परिभाषा बदल गई है। और ये बात उस अखबार पर भी लागू होती है जिसमें कि ये बॉटम स्टोरी छपी थी, और उन तथाकथित कॉमरेडो पर भी, जो किसी परियोजना के बंद होने का दुख ऐसे मनाते है मानो भारत में भाजपा की सरकार बन गई हो और आडवाणी प्रधानमंत्री।
आगे सुने लेखक ने क्या लिखा है 'जमीन के बदले किसानों को जो पैसे मिले थे उसकी तो उन्होनें सपने मे भी कल्पना नही की थी, जमीन के एवज में मिले इन लाखो रू ने दो जून भर पेट भात को तरसते इन किसानों की जिंदगी में पहिए लगा दिए' । अगर ये परियोजना इतनी ही लाभकारी होती, वहां के किसानों के लिए तो, इतना विरोध नही होता, इतना खून नहीं बहता... जो सिंगूर की उस भूमि को लाल कर गया शायद सीपीएम कैडरो से भी ज्यादा लाल सिंगूर की वो जमीन है जहा के बच्चे-बच्चे ने अपने अपनों को उस जमीन के लिए लड़ते देखा है जो जमीन आपके अनुलार उन्हें दो जून का भात तक नही दे सकी।

क्रांति किसी लालच की मोहताज नही, रुपयों से इंसान खरीदे जाते है, ईमान नही...इंसान-इंसान की बात है, कोई बीमार मां को घर से निकाल देता है, तो कोई बंजर भूमि के लिए गोली खा कर शहीद हो जाता है। जिस बेटे ने अपने बाप को उसी जमीन के लिए मरते देखा हो, वो भला कैसे कुछ रुपयों में अपने बाप के खून का सौदा कर देगा। शायद तो नही...






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