Thursday, May 14, 2009

कस्बा पर बहस धर्मनिरपेक्षता को चुनौती

रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर नीतीश कुमार के नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करनें पर रवीश कुमार की पोस्ट ' नीतीश नरेंद्र की नौटंकी' में टिप्पणियों का अंबार लग गया और बहस छिड़ी की क्या गलत किया जो अगर नीतीश और नरेंद्र मोदी एक हुए तो रवीश जी को क्या ऐतराज है, अफसोस की बेतुके तर्क देकर तथाकथित पत्रकारों ने इस दोस्ती के नए आयाम खोजे और धर्मनिर्पक्षता को ही चुनौती दे डाली। मैं भी बहस में कूदा और अपने तर्क आपसे साझा कर रहा हूं।

बहुत बहस हुई, लेकिन अफसोस इतना है कि फिर भी ऐसे लोग बहस में शामिल है जो कि कुछ समझना नहीं चाहते,कोई बात नहीं देश भरा पड़ा हैं ऐसे लोगों से जो सोचते हैं कि कांग्रेस ने इस देश को आजाद करवाया और भाजपा ने हिंदुओं के हित की बात की,जिनकी सोच में आज भी भारत के वामपंथी मजदूर-किसान के हक की बात करते हैं, और समाजवादियों का कांग्रेस विरोध शायद कांग्रेसियों से गलबहियों पर भी प्रतीत होता है.ये भारतीय संविधान में अगर लिखा है कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है तो क्या? सारी बात एक बार स्पष्ट हो जाती है कि किसी उम्मीदवार का जीतना उसकी नैतिकता का पैमाना है, जिस प्रकार आप जैसे लोग ही टेलीविजन पर परोसे जा रहे मसालेदार खबरों के व्यंजनों को चटकारें मारकर देख रिमोट से चैनल बदलते समय कह देते हैं कि क्या साला आज-कल इन न्यूज़ वालों को खबरें नहीं मिलती। आप उसमें मीडिया की नैतिकता पर सवाल खड़ा करते हैं कि खबरों के माएनें क्या होनें चाहिए, क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं, क्या खबर हैं और क्या नहीं, और जब आपको टीआऱपी दिखा कर आपके ही मित्र मुंह बंद करते हैं तो आप लोग फिर ब्लॉग पर मीडिया की नैतिकता पर उल्टी करनें लगते हैं, हमें ही खबरों के सिद्धांत बताते हैं.परंतु जब हम नरेंद्र मोदी,कल्याण सिंह या जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार के दंगों में लिप्त होनें की बात करते हैं जो आप केवल मोदी की जीत का हवाला देते हैं कि मोदी को जनता ने चुना है...भाई विरोधामास लोगों के विचारों में हैं, तर्क ये भी दिया जा सकता है कि जगदीश टाईटलर या सज्जन कुमार भी दोषी है,लेकिन जीततें तो वो दोनों भी हैं आपके संघी मदन लाल खुराना और स्व.साहिब सिंह भी उनसे हारे हैं, वो भी भारी अंतर से। तो क्या उन्हें चुनाव में टिकट नहीं दिया जाना चाहिए था, काम तो उन्होंनें भी करावाया था परंतु देश में गलत कृत्य करनेवालें की जीत या धर्मनिरपेक्ष होने का पैमाना उसकी जीत या उसके द्वारा किए गए विकास कार्य नहीं होना चाहिए। अगर देश के सभी सिख कांग्रेस के खिलाफ होते तो कांग्रेस की सरकार पंजाब में बनना इसके पैमानें को तय कर देता हैं कि कांग्रेस द्वारा जो 84 में हुआ वो भुलानें लायक है? या भाजपा की सरकार नें जो 92 में अयोध्या में किया वो भुलानें लायक है? जो सिंगूर-नंदीग्राम में हुआ वो भूलानें लायक है? या जो उड़ीसा के कंधमाल में ईसाईयों के साथ जो हुआ वो भुलानें लायक हैं? मेरे मित्रों आप नीतीश के चुनाव से पहले मोदी के बारे में दिए गए बयान को उड़ीसा में नवीन पटनायक के चुनाव से ठीक पहले बीजेपी से अलग होनें के जैसा कृ्त्य नहीं मानतें? नवीन पटनायक को इस बार कंधमाल की घटना से सबक मिला और चुनाव से ठीक पहले अलग हो गए, और ऐसा ही कुछ हमारे नीतीश बाबू भी कर गए चुनाव के दौरान तो आपकी गाड़ी के पीछे मोदीजी के लिए लिखा था कि 'उचित दूरी बनाएं रखें'पर गाड़ी की पार्किंग एक ही थी, तो उनके साथ ही पार्क कर दी। अब पता नहीं कि ऐन मौके पर नवीन पटनायक भी आपकी पार्किंग में जगह न बना लें। फिर सवाल उठेगी की सही गलत का क्योंकि पटनायक भी कंधमाल के लिए उतनें ही दोषी हैं जितना की संघ परिवार. मेरे संघी पत्रकारों को शायद मेरी बात बुरी लगे पर रवीश भाई के इस लेख से इतना तिलमिलानें की जरूरत नहीं थी, सवाल सहीं-गलत का था चाहे वो कांग्रेस के टाईटलर-सज्जन हों भाजपा के कल्याण,आदित्यनाथ,मोदी या वरूण या सिंगूर और नंदीग्राम में सीपीएम कॉमरेडो द्वारा किया गया अमानवीय कृ्त्य.इन सभी को यदि आप जीत के पैमानें पर रखकर आगे की सोच को स्वीकराते हैं तो क्या गलत हुआ जो वरूण गांधी ने मुस्लमानों के खिलाफ गलत बात कही, क्या गलत अगर योगी आदित्यनाथ मुस्लिम हत्या को पुण्य के तराजू में तोलतें है,जीतते तो वो भी हैं हर बार, और जीत तो वरुण गांधी भी जाएंगे, सीपीएम भी बंगाल में जीतेगी और संघी फिर दिल्ली शहर में कितना चिल्लाते कि 84 के हत्यारे-84 के हत्यारे,पर जीत सज्जन-टाइटलर भी जाते, अगर आपको ये स्वीकार्य है तो बहस जारी रखिए...

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