Saturday, May 23, 2009

मेरे मित्र ऋषि कुमार सिंह के ब्लॉग पनिहारन पर जरनैल सिंह के जूते के प्रकरण पर छिड़ी बहस पर हमनें भी कुछ कहा...जूते की प्रासंगिकता पर एक और तर्क शायद लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ही नहीं मानव जाति के संदर्भ में भी शायद सही साबित होता हो....
जैदी और जरनैल सिंह दोनों की पीड़ा और प्रतिक्रिया में अंतर नहीं किया जा सकता, बात सही है...इस जूता प्रकरण से एक वाकिया याद आता है, किशोरावस्था में मैं एक बाग में खेलते वक्त बंदरों के झुंड में फंस गया था, मैं भागनें में तेज था तो किसी तरह अपनी जान बचा कर भाग और बच गया। मैंनें ये बात अपनी अम्मा को बताई तो अम्मा ने अपने अनुभवों के अनुसार एक टोटका बताया, कि कभी बंदरों के झुंड में फंस जाओ तो अपनी चप्पल या जूता निकाल कर हाथ में ले लेना बंदर तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे...मैंनें पूछा अम्मा क्यों बंदर क्या जूते से डरते हैं? अम्मा बोली कि बंदर इस बात से डरते हैं कि जिस बंदर को जूता पड़ा वो झुंड से अलग कर दिया जाएगा...इसलिए बंदरों के लिए ये टोटका अम्मा के समय प्रासंगिक था तो उन्होनें मुझे बता दिया, पर आज के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए भी ये प्रासंगिक लगता है, अम्मा तो अब इस दुनिया में नहीं हैं...मैंने उस समय तो उनके टोटके को अंधविश्वास भर माना, पर आज लगता है कि जूता कितना प्रभावशाली है,शायद सही कहा हो अम्मा ने...आखिर इंसान के पुर्वज भी तो बंदर ही थे...।

दोस्तों ये मेरे अपनें विचार हैं जो कि इस सारे घटनाक्रम के होनें पर सही या गलत दोनों हो सकते हैं...

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