अविनाश भाई के मोहल्ले में आए दिन बहस चलती रहती है, अभी कल ही धर्म संबंधित पर्दा प्रथा पर बहस हुई थी, और आज "जाति के भंवर में फंसा लोकतंत्र" पर। खैर ये मेरे मित्र प्रमोद का मानना है तो मैनें भी कुछ कहा...आप भी जानें जरा क्या कह रहे थे भाईजी और क्या कहना चा रहे हैं हम ....
प्रमोद भाई, आपकी पोस्ट पढ़ी मुझे लगा कि आपके विचारों में विरोंधाभास है, आप एक तरफ कह रहे हैं कि जाति के आधार पर वोट पढ़ता है,नेता अपनी जाति तक सीमित रहते हैं और दूसरी तरफ ये कि देश में दबंग जातियों नें नीची जातियों को वोट डालनें नहीं दिया जाता था। आपको ये नहीं लगता कि ये जो नीची जाति को वोट न डालनें की बात नें ही नीची जातियों में प्रतिनिधत्व की भावना को जागृत किया,क्या ये प्रतिक्रिया नहीं है समाज के वंचित समुदाय की कि वो अपनें प्रतिनिधत्व को पूरा समर्थन देते हैं। मैं जानता हूं की वास्तविक परिदृश्य में कई जगह ये बात पूर्ण रूप से साबित नहीं होती की सभी प्रतिनिधि अपनी जाति के लोगों के भले के लिए अपनें भले को दांव पर लगा देते हैं, परंतु ये बात आपकी बात से ही निकल कर आती है कि नेता लोग आपनी जाति तक ही सीमित रहते हैं? मरे भाई आपनें राजस्थान के जिस क्षेत्र की बात कि मेरे पूर्वज कभी उसी क्षेत्र से दिल्ली मजदूरी करनें के लिए दिल्ली आए थे, मैं आज भी अपनें गांव जाता हूं और जातिवाद का जितना गहरा दंश आज भी राजस्थान के पढ़े-लिखे और अनपढ़ में विद्यमान है उससे आप भली-भांति वाकिफ होंगे, वरना क्या कारण रहा होगा कि यू.पी के राजेश पायलेट को राजस्थान के गुर्जर बाहुल इलाके से टिकट दिया गया और जब तक वो सीट रिजर्व नहीं हुई थी वो उनकी खानदानी बपौती बनीं हुई थी और क्या भला किया उन्होनें अपनें समाज का ये आपनं गुर्जर आंदोलन में देख ही लिया होगा।एक कर्नल साहब आए पढ़े-लिेखे थे गुर्जर समाज में औऱ मूल रूप से राजस्थान के भी थे, पर समाजिक आंदोलन को राजनीतिक रूप दे कर अपनें लिए भी एक सीट लेनें की पूरी कोशिश की थी लेकिन समाज ने उनका साथ नहीं दिया और हार गए आप जिस 21वीं सदी की बात कर रहे हो वहां आज भी जातिय शोषण कितना होता है इसे आप भली-भांति परिचत होंगे। आज लोगों को जातिय दलों और नेताओं से चिड़ होनें लगी है हमारे तथाकिथित उदारवादी पत्रकार इसे बुरा समझते हैं, पर क्या आप उस समाज को या उस राजनीतिक सोच को सही ठहराएंगे जिसमें कि आप केवल कांग्रेस की हां में हां मिला कर उसके राजनीतिक पिछलग्गू बनकर अपनें वोट की एफ.डी करवाते रहें?ये कांशीराम-लालू-मुलायम-पासवान-मायावती सभी लोग उस टीस और उस शोषण की उपज हैं जिसे की आप एक पार्टी के नीचें खड़े हो कर हां में हां मिलाना और सामजिक समरसता का नाम देंगे।क्योंकि आरक्षण न होता तो शायद कोई दलित या आदिवासी चुनाव लड़ना तो दूर मेरे मित्र वोट होता क्या है ये नहीं जानते थे। आज जब लोगों में अपनें प्रितिनिधित्व की सोच जागी हैं तो राजनीतिक दलों नें भी माना कि इधर इनकी आवाज को दबा कर नहीं रखा जा सकता। आप कल्पना करें कि जब ये छोटे राजनीतिक दल नहीं थे जिनका मैनें जिक्र किया तो समाज में समरसता थी? कोई किसी पर शोषण नहीं करता था ? सभी लोग बराबर थे? आज लोग जानते हैं कि कोई उनकी बात सुननें वाला है औऱ यदि नहीं सुनेगा तो बता भी सकते हैं उस नेता को। ये जो जातीय महत्ता की बात आपनें कहीं ना वो जब नहीं होती जब जगजीवन राम जैसे दलित नेता अपना मंत्रालय भर तक सीमित रहते है..ये जब होती है जब एक बड़ी आवाज डीएस फोर से उठकर मंडल तक जा कर उ.प्र और बिहार जैसे राज्यों में अपनी ताकत को दर्शाती है... आगे फिर कभी...
2 comments:
aap se sahmat hu.
aur vistar se likhiye hum sab ko achha lagega
पिछडी जातियों को आगे लेन का काम जो इन छेत्रिए पार्टियों ने किया वो तो सही है , पर ये जिस ढंग से किया गया वो सही नही था , इसे आपस में द्वेष फैला कर किया गया , और खाली निचली जातियों को आगे लाने से काम नही होगा , मुझे नही लगता की मुलायम , लालू , और मायावती ने केवल अपने बैंक बैलेंस बढ़ाने के आलावा कुछ भी पिछडी जातियों के लिए किया । मैं जातिये आधार पर पार्टियों का गठन सरासर लोकतंत्र और भारत का अपमान मानता हूँ , अगर भारत को आगे बढ़ना है तो इन छोटे शार्टकट से बचने की जरूरत है , एक दूरदर्शी नेतृत्व की जरूरत है । आरक्षण भी एक तरह का शार्टकट ही है , हम इससे आगे नही जा सकते । वैसे भी हम भारतियों को आसान तरीके बड़े अच्छे लागतें हैं , हममे थोडी मेहनत करने की आदत की जरूरत है .
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