Monday, February 9, 2009

गुंडई के विरुद्ध...

कर्नाटक के मंगलोर स्थित एक पब में युवाओं पर हुआ हमला हमारे लोकतंत्र के 60वर्षों की कोई नई कहानी नहीं बयां करता, बल्कि ये घटना हमारे सामने वो सच्चाई प्रस्तुत करती है जिससे या तो शायद हम परिचित नहीं थे या हम जानना नहीं चाहते. आज भी देश में ऐसी सोच के लोग मौजूद है एक बड़ी शक्ति के रूप में जो कि खुद को राष्ट्र, समुदाय, क्षेत्र, आदि का हितेषी बता कर कभी भी, कहीं भी कानून को हाथ में लेकर किसी की भी पिटाई कर चलता बनता है और पुलिस प्रशासन शायद इसे देश हित में समझकर कोई कार्यवाही नहीं करता. पहले ये लोग धर्म, समुदाय, भाषा, क्षेत्र, के नाम केवल गरीब, मजदूर, लोग ही इनके शिकार होते थे. पर अब समय बदलने के साथ-साथ इनके शिकार में भी परिवर्तन आया है. आजकल ये लोग पढ़े-लिखे नौजवानों और लड़कियों पर अपनी शौर्यता दिखाते हैं. खैर ऐसा नहीं है ये लोग पहली बार नौजवानों पर अपनी गुंडा गर्दी दिखाई है. बीते कुछ वर्षों की यदि हम बात करें तो हम पाते है कि नौजवान युवक- युवतियों को पहले ये लोग केवल वेलेंटाइन डे पर ही अपनी गुंडागर्दी दिखा कर बेइज्जत करते. औऱ हवाला देते खुद के भारतीय संस्कृति के रक्षक होनें का. और ऐसी ही सोच वाले उनके कुछ भाई क्षेत्रीयता के नाम पर किसी को भी पीटकर दौडा-दौडा कर मारते, और कुछ भाई गिरजाघरों पर हमलें कर इसे धर्म हितकारी कार्यवाही करार दे देते, ऐसी ही सोच हमारे उत्तर-पूर्वी मित्र भी रखते है वो भाषा के नाम पर मार काट मचाए हुऐ है. लेकिन आज इस सोच ने और भीषण रूप ले लिया है. आज देश के सामने कई चुनौतियां है लेकिन हम आज भी केवल एक सोच को खोज रहे हैं. सोच संवैधानिक हो? हमारे देश में अपने द्वार की गी गुंडागर्दी को सही साबित करने वालों को शायद ये नहीं पता की इस देश में हर किसी को अपनी मर्जी से जीनें का अधिकार है. चाहे वह महिला हो या पुरूष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक. पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ सभी को अपनी मर्जी से अपना जीवन निर्वाह करने का अधिकार है. फिर क्यों हम ऐसा काम करते है जिसे करने के लिए हमारा संविधान हमें इजाजत नही देता. क्यों हमारी सोच समय बदलने के साथ-साथ और भी ज्यादा छोटी होती जा रही है. क्यों ये हिंदू सेना, राम सेना, शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, बजरंग दल, अभिनव भारत, उल्फा और न जाने कितने ही इनके जैसी सोच रखनेवाले संगठन अपने देश में नफरत और वैमनस्य का घिनौना प्रचार कर रहे है. सारा मामला सहयोग, सहायता और सौहार्द से परे हो स्वार्थ, सामंतवाद औऱ स्वामित्व की कोठरी में आ कर बंद हो जाता है. कोई महिला पर अपनी रंगदारी दिखाता है, तो कोई दलित-आदिवासी पर, कोई किसी दूसरे राज्य में रोटी कमाने गए मजदूर को पीटकर भगा देता है तो कोई किसी को बहुसंख्यक होने दबंगई दिखाकर काट देता है. अगर कोई लड़की पब में नाचती है तो किसी को क्यों ऐतराज हो ? अगर कोई अपने धर्म को मान रहा है, अपने धार्मिक क्रियाकलाप करता है तो किसी को क्यों बुरा लगे ? कोई महिला केवल घर में ही क्यों रहे और अपनी मर्जी से क्यों न जीए ?
क्यों किसी गरीब मजदूर रोजी-रोटी कमाने के अधिकार से ही वंचित रखा जाए? क्यों भाषा के नाम किसी को सरे आम गोला मारी जाए? क्यों जाति के नाम पर किसी को सर पर जूते रखकर जाना पड़े?
दोस्तों ये वो सवाल है जो हमारे 60 वर्षों के लोकतंत्र के सामने मुंह चिढ़ाए खड़े है...जवाब हमारे पास पास होते हुए भी नहीं है...।

नवीन कुमार ‘रणवीर’
2007-08
भारतीय संचार संस्थान दिल्ली

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