Sunday, December 6, 2009

बाबरी की बरसी...

6 दिसंबर 2009 ,रविवार के दिन मेरी छुट्टी मेरे लिए उपहार से कम ना थी, मीडिया की नौकरी में रविवार की छुट्टी लॉटरी का काम करती है ना दोस्तों? मैं सुबह की धूप का आनंद लेनें के लिए मोहल्ले के चौक पर जा रहा था तो याद आया, की कल काम पर भी जाना है, तो कपडे भी इस्त्री(प्रेस) करवानें के लिए दे दूं। कपड़े इस्त्री के लिए देनें के लिए चौक पर गया और प्रेसवाले की दुकान पर खड़ा धूप का आनंद लेनें लगा, आसपास मोहल्ले के बुजुर्ग ताश खेलनें की योजना बनाते मंडली पूरी होनें की बाट जोह रहे थे, तो नौजवान और बच्चे अपनी बातों में मशरूफ़ थे। मैं भी काफी दिनों के बाद रविवार को अपनें मोहल्ले के चौक पर आया था। काम की व्यस्त्ता के चलते मौका भी नहीं मिल पाता हर रविवार चौक पर आनें का और हफ्तेभर के किस्सों को किसी मित्र से साझा कर पानें का। बड़े दिनों के बाद किशन लाल(मेरे बचपन का मित्र) मिला और व्यंगात्मक शैली में बोला और पत्रकार साहब क्या हाल है? आज आप बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी नहीं मना रहे क्या? मुझे सुनकर बड़ा अटपटा सा लगा और मैं अपनें पुरानी दिल्ली के लहज़े में ही बोला कि"अबे क्या कह रहा है?" मेरा मित्र बोला "यार आज तो बाबरी मस्जिद विध्वंस की गई थी ना तो तुम कहीं किसी धिक्कार या सम्मान दिवस में नहीं गए क्या?" मैनें कहा कि भाई मेरी आज छुट्टी है और मैं आज काम पर नहीं गया हूं। तुम मजाक क्यों कर रहे हो...। इतनें में किशन लाल बाज़ नहीं आया और मेरे बगल से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के 30 वर्षों से कर्मठ कार्यकर्ता श्रीमानजी निकल कर जा रहे थे, तो किशन लाल बोला कि "शाखा के प्रमुख जा रहे हैं इनसे बात करते हैं, ये आज माथे पर टीका लगा कर कहां से आ रहे हैं?" मुझे चौक खड़े देख श्रीमान जी अपनें ब्रजीया लहजे़ में बोले "नमस्तेजी आज आपकी छु्ट्टी है का? मैनें कहा कि हां आज किस्मत ठीक थी, आप बताएं श्रीमानजी कहां से आ रहे है आप सुबह-सुबह तिलक-विलक माथे पर लगा कर? आज बाबरी की बरसी तो नहीं माना रहे थे कहीं? श्रीमानजी मुस्कुराए और हाथ मिलाते हुए बोले "हम का मनावैंगें बरसिअऐ, या बो तो मुस्लमान मानाऐंगे" और ज़ोर से हंस पड़े। मैं और किशन लाल एक दूसरे कि तरफ देखनें लगे। ये हम दोनों जानते थे कि हमारे मुहल्ले से 4 लोग कारसेवा के लिए अयोघ्या गऐ थे जिनमें से एक को आधे रास्ते से वापस आना पड़ा था और तीन लोग पूरा काम करके आए थे, वो तीनों थे ठाकुर साहब, मिश्राजी और श्रीमानजी । जिनमें से हरदोई के मिश्राजी तो बाबरी की ईंट भी लेकर आए थे। आज तक मिश्राजी नें अपनें मकान की एक ईंट ना लगाई है, ये सभी जानते है, कि वो आज भी अपनें परिवार से, जो कि मोहल्ले में ही मकान में रहता है उनसे अलग रहते हैं। पंडतजी सरकारी ज़मीन (जोकि मोहल्ले की चौपाल है) उसपर कब्ज़ा करके एक छोटी सी झोपड़ी बना कर अकेले रहते हैं। चुनावों के दिनों में बटनेंवाली शराब भी उन्हीं के यहां से वितरित होती है, ये सभी जानते हैं।
अब श्रीमानजी को ऐसे मौके पर हम भला कैसे जानें देते। तो हम भी लगे कुछ सवाल जाननें के लिए, कि क्या हुआ था?आप लोग कब गए थे? कैसे गए थे कैसे गिराई गई मस्जिद? कौन-कौन नेता मौजूद थे?

बातों-बातों में मैं हंसी ठिठोली करता हुआ एक-एक कर अपनें सवाल रखता गया। श्रीमानजी का जवाब सुनते-सुनते 6 दिसंबर 1992 का वो दिन मेरी आंखों के सामनें दिखाई दे रहा था। श्रीमानजी बोले कि हम यहां से तो कारसेवा के लिए गए थे। ट्रेन की टिकट भी ली थी, बाबरी मस्जिद से काफी दूर हम पैदल चलना पड़ा था, काफी तादाद में लोग आए थे। संघ के आदिवासी कल्याण समिति के लोगों को तीर कमान लेकर तैयार कर रखा था। फिर मैनें पूछा कि ऐसा क्यों? तो श्रीमानजी बोले कि संघ आदिवासी इलाकों में आदिवासी कल्याण के कार्यक्रम चलाती है जिससे कि कोई उनका धर्म परिवर्तन ना कर सके, उन आदिवासी लोगों को ये काम सौंपा गया था। जिस वक्त आडवाणीजी भाषण दे रहे थे तो एक युवक गुंबद पर चढ़ गया, उसे नीचे उतारनें के लिए आडवाणी नें माईक से ही कहा था। लेकिन लोगों के हुज़ूम ने जयश्रीराम के नारे लगानें शुरू कर दिए थे। आडवाणी की बात का ना तो भीड़ पर असर हुआ था और ना उस युवक पर, इतनें में कई और युवकों ने गुंबद पर चढ़नें की कोशिश की और वे कामयाब हो गए। आडवाणीजी और अशोक सिंघल इतनें मंच से उतर गए और वहां से पीछे हो गए। विनय कटियार और उमाभारती नारे लगानें लगे कि "राम नाम सत्त है... बाबरी मस्जिद ध्वस्त है"। आचार्य धर्मेंद(जयपुर वाले) भी वहां उस समय मौजूद थे और उन्होनें भी भाषण दिया था। विनय कटियार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि गिरा दो गुंबद। दोपहर के 12-1 बजे थे और 5 बजे तक तीनों गुंबदों को गिरा दिया गया था, और लोग मस्जिद की ईंटे घर लेकर चले गए। उसके बाद हम लोग भी वहां ले भागे औऱ उसी हुज़ूम के एक हिस्से के साथ कैसे-तैसे बिना टिकट के दिल्ली पहुंचें।
श्रीमानजी की बात पूरी होनें तक मेरे कपड़े भी इस्त्री हो चुके थे औऱ मेरे माथे नें भी अपनी रात की सलवटों को बाबरी की रिकॉडिंग से प्रेस कर लिया था। मैं अब अनमनें से चेतन अवस्था में था। श्रीमानजी नमस्तेजी कहते हुए चलते बनें। किशन लाल भी अपनें घर को चलनें से पहले बोला कि बाबरी की ईंट देखनें के लिए मिश्राजी के पास चलोगे? मैनें कहा कि नहीं फिर कभी...।इतना कह कर वो भी अपनें घर को निकल लिया।
घर आते वक्त मैं मन में सोच रहा था कि विध्वंसकारी अपनी शौर्यता के प्रमाण के लिए ईंटों को घर लेकर चले गए। वो ईंट भारत नाम के इस घर की धर्मनिरपेक्षता की नींव की ईंट थी। जो कई सालों से इस देश को कई संस्कृतियों के रेत-गारे से एकता की छत के नींचे आसरा देती थी। उसे निकाल कर इन लोगों ने अपनें घर की बुनियाद हटाकर उसमें सांप्रयादिकता और द्वेष की ऐसी घूस लगा दी है, जो 92 से आज तक इस घर को खोखला करती आ रही है। जब इस घूस को हम नहीं मारेंगे तब तक इस देश में धार्मिक वैमनस्य नाम पैदा करनें वाली ताकते सिर उठाती रहेगी। बदले की आग से नहीं उन फ़िर्कापरस्त शक्तियों के खिलाफ एकजुट होकर हमें अपनें इस घर की रक्षा करनी है।

2 comments:

Rangnath Singh said...

अभी इस मुद्दे का सही विश्लेषण करना बाकि है। दस साल बाद ही हो सकेगा !! संस्मरण ज्यादा महत्वपूर्ण लगा।

Unknown said...

Bhut sahi yaar... maja aa gaya...