
अब श्रीमानजी को ऐसे मौके पर हम भला कैसे जानें देते। तो हम भी लगे कुछ सवाल जाननें के लिए, कि क्या हुआ था?आप लोग कब गए थे? कैसे गए थे कैसे गिराई गई मस्जिद? कौन-कौन नेता मौजूद थे?
बातों-बातों में मैं हंसी ठिठोली करता हुआ एक-एक कर अपनें सवाल रखता गया। श्रीमानजी का जवाब सुनते-सुनते 6 दिसंबर 1992 का वो दिन मेरी आंखों के सामनें दिखाई दे रहा था। श्रीमानजी बोले कि हम यहां से तो कारसेवा के लिए गए थे। ट्रेन की टिकट भी ली थी, बाबरी मस्जिद से काफी दूर हम पैदल चलना पड़ा था, काफी तादाद में लोग आए थे। संघ के आदिवासी कल्याण समिति के लोगों को तीर कमान लेकर तैयार कर रखा था। फिर मैनें पूछा कि ऐसा क्यों? तो श्रीमानजी बोले कि संघ आदिवासी इलाकों में आदिवासी कल्याण के कार्यक्रम चलाती है जिससे कि कोई उनका धर्म परिवर्तन ना कर सके, उन आदिवासी लोगों को ये काम सौंपा गया था। जिस वक्त आडवाणीजी भाषण दे रहे थे तो एक युवक गुंबद पर चढ़ गया, उसे नीचे उतारनें के लिए आडवाणी नें माईक से ही कहा था। लेकिन लोगों के हुज़ूम ने जयश्रीराम के नारे लगानें शुरू कर दिए थे। आडवाणी की बात का ना तो भीड़ पर असर हुआ था और ना उस युवक पर, इतनें में कई और युवकों ने गुंबद पर चढ़नें की कोशिश की और वे कामयाब हो गए। आडवाणीजी और अशोक सिंघल इतनें मंच से उतर गए और वहां से पीछे हो गए। विनय कटियार और उमाभारती नारे लगानें लगे कि "राम नाम सत्त है... बाबरी मस्जिद ध्वस्त है"। आचार्य धर्मेंद(जयपुर वाले) भी वहां उस समय मौजूद थे और उन्होनें भी भाषण दिया था। विनय कटियार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि गिरा दो गुंबद। दोपहर के 12-1 बजे थे और 5 बजे तक तीनों गुंबदों को गिरा दिया गया था, और लोग मस्जिद की ईंटे घर लेकर चले गए। उसके बाद हम लोग भी वहां ले भागे औऱ उसी हुज़ूम के एक हिस्से के साथ कैसे-तैसे बिना टिकट के दिल्ली पहुंचें।
श्रीमानजी की बात पूरी होनें तक मेरे कपड़े भी इस्त्री हो चुके थे औऱ मेरे माथे नें भी अपनी रात की सलवटों को बाबरी की रिकॉडिंग से प्रेस कर लिया था। मैं अब अनमनें से चेतन अवस्था में था। श्रीमानजी नमस्तेजी कहते हुए चलते बनें। किशन लाल भी अपनें घर को चलनें से पहले बोला कि बाबरी की ईंट देखनें के लिए मिश्राजी के पास चलोगे? मैनें कहा कि नहीं फिर कभी...।इतना कह कर वो भी अपनें घर को निकल लिया।
घर आते वक्त मैं मन में सोच रहा था कि विध्वंसकारी अपनी शौर्यता के प्रमाण के लिए ईंटों को घर लेकर चले गए। वो ईंट भारत नाम के इस घर की धर्मनिरपेक्षता की नींव की ईंट थी। जो कई सालों से इस देश को कई संस्कृतियों के रेत-गारे से एकता की छत के नींचे आसरा देती थी। उसे निकाल कर इन लोगों ने अपनें घर की बुनियाद हटाकर उसमें सांप्रयादिकता और द्वेष की ऐसी घूस लगा दी है, जो 92 से आज तक इस घर को खोखला करती आ रही है। जब इस घूस को हम नहीं मारेंगे तब तक इस देश में धार्मिक वैमनस्य नाम पैदा करनें वाली ताकते सिर उठाती रहेगी। बदले की आग से नहीं उन फ़िर्कापरस्त शक्तियों के खिलाफ एकजुट होकर हमें अपनें इस घर की रक्षा करनी है।