Friday, July 3, 2009

धारा-377...ऐसा देस है मेरा!

2 जुलाई 2009 दिल्ली हाईकोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को लेकर सालों से चले आ रहे बवाल पर कानूनी मोहर लगाते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 से बाहर माना है। कोर्ट का कहना हैं कि समलैंगिकों पर धारा 377 के तहत कार्यवाही करना भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान की धारा 14, 15 और 21 द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन है। अब सवाल उठता है की आईपीसी की धारा 377 क्या है, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति( स्त्री या पुरुष) के साथ अप्राकृतिक यौन संबध बनानें पर या किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनानें पर उम्र कैद या 10 साल की सजा व जुर्मानें का प्रावधान है। जिससे कि बहुतेरे समलैंगिक जोड़ो (विशेषकर पुरुषों) को प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। गैरकानूनी होनें की वजह से इन जोड़ों के साथ रह कर जीवन-यापन करनें को समाज और प्रशासन गलत मानता रहा है। हालांकि अब भी यह कहना मुश्किल होगा कि प्यार के इस रूप को समाज स्वीकार करता है या नहीं लेकिन कानून तो अब प्यार और विश्वास के इस अनूठे संगम में अवरोध नहीं बन सकता। क्योंकि कानून के मुताबिक इस धारा(377) के तहत ही समलैंगिकों की इस अभिव्यक्ति पर विराम लगा था। कुछ थे जो खुलकर अपनें समलैंगिक होनें की बात को स्वीकार करते लेकिन कानूनी दांव पेंच के आगे वे भी हाथ उठा लेते। समलैंगिकों के अधिकारों के लिए समय-समय पर कई गैर सरकारी संगठन आगे आए और काफी हद उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई। और आज ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन "नाज़ फाउंडेशन" की मुहिम रगं लाई औऱ कोर्ट को ये मानना पड़ा कि 1860 में बनीं धारा 377 को वास्तविक परिवेश में केवल नाबालिग के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनानें और जानवरों के साथ यौन संबध बनानें के लिए ही उचित समझा जाए, एक लिंग के दो व्यक्ति जो कि बालिग हो अपनी मर्जी से साथ रह सकते हैं। अब सवाल आता है विरोध औऱ मान्यता का? विरोध तो कल भी हुआ था औऱ आगे भी होगा, क्योकिं कानूनी मान्यता के आधार पर भी भारत में ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो खुद को भारतीय संस्कृति के पैरोकार मानते हैं औऱ खुद आज तक पता नहीं कितनी बार कानून की धज्जियां उड़ा चुके हैं। ऐसे संगठन है जो यह जानते हैं कि देश का संविधान हमें धर्म, लिगं, क्षेत्र, जाति के नाम पर अलग नहीं करता हैं, जो जनाते है कि देश धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी किसी मस्जिद-गिरजाघर को तोड़ देते हैं, जो ट्रेन जला देते हैं, जो अपनें ही देश में रोटी कमानें-खानें के लिए आए मज़दूरों को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटते है, जो सदियों से सामंतवाद और जातिवाद की चोट से ग्रस्त लोगों के घरों में आग लगा कर उनसे जीनें के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं, जो किसी महिला को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनें हक़ के लिए बंदूक उठा ले और डाकू फूलन देवी बन जाए...ये तो बानगी भी नहीं है दोस्तों...ऐसा देस है मेरा!
अब देखते हैं कि समाज के इस नए पहलू को किन-किन प्रतिक्रियाओं से गुजराना होगा, क्या ऐसे समाज से आप आशा करते हैं कि वो इस सब पर खुलकर सामनें आएगा और इसे स्वीकार करेगा, कानून आपनी जगह सही हो सकता है। नैतिकता के माएनें लेकिन खुद ही सीखनें होते हैं। मैनें आपको बता दिया है कि किस प्रकार कानून का अमल किया गया है इस देश में। न्याय प्रक्रिया तक बात को पहुचानें के लिए भी तो आवाज चाहिए औऱ आवाज के माध्यम किसके पास है और वे किस सोच से इत्तीफ़ाक़ रखते हैं ये भी मायनें रखता है। आज देश में हमारे पत्रकारों की सोच सभी विषयों पर उदारवादी दिखती है कुछ संघी पत्रकारों को छोड़कर, लेकिन क्या इस विषय पर कोई पत्रकार सही और गलत परिभाषित करेगा? क्या कोई पत्रकार समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलानें की मांग को सही ठहाराऐगा ? मैनें देखा कि ब्लॉग पर भी लोग इस विषय पर कुछ लिखनें से डर रहे है, और जो लिख रहे है वो केवल कोर्ट के फैसले की पुष्टि भर के लिए अपनी उदारवादी सोच की उपस्थिति भर दर्शा रहे हैं। शायद उन्हें भी डर है कि कहीं जब हम कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो लोग समझ लेते हैं कि हम कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी है उसी प्रकार यदि हम इस विषय पर लिखे तो शायद हमें भी लोग इसी श्रेणी में ले आएंगे। खैर ये तो सोच है अपनी-अपनी लेकिन सोच संवैधानिक हो ये संभव नहीं? एक सोच का वर्णन तो मैनें इस लेख में कर ही दिया है । अब देखना है कि यही समाज इस नए नियम को किस प्रकार लेता है, देखना दिलचस्प होगा, वैसे उम्मीद तो वही है (विरोध) जो कि पहले बताया गया है । लेकिन अब मामला ये देखना पड़ेगा की यहां पर कोई क्षेत्र, जाति, धर्म, बोली-भाषा, अमीरी-गरीबी का दंश जो भारतीय समाज में प्यार के आड़े आता रहा है, शायद वो केवल ये माननें भर से कम हो जाए कि लिंग तो समान नहीं है ना, बाकि सारी विषमताएं एक मान ली जाएंगी शायद...।

6 comments:

Rangnath Singh said...
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Rangnath Singh said...

yaun se jude muddo par khul kar baat karne ki bhartiyo ki aadat nhi h. apne sahi ishara kiya h ki blooger bhi is mudde se bach rhe h.

anya vishamtavo ki taraf bhi aapne uchit dhyan dilaya h.

Garima Goswamy said...

well written.

Crazy Codes said...

ranvir bhayi... aapka lekh padha... sach kahun maja aa gaya... lagta hai aapko kanoon ke baare mein achhi jankaari hai... honi v chahiye... mere topic "hai koi jawaab" par aapka comments bhi padha... dhanyavaad dena chahunga...
par ek baat hai jo main kahan chahunga... main apne desh ke kanoon ke baare mein nahi kahna chahta kyonki main iske baare mein kuchh janta hi nahi... waise apne desh ke sanvidhaan par v ek din likhunga jaroor aur us din aapse madad lunga...
dear maine apne blog par samlaingiko ke baare mein likha tha na ki apne desh ki kanoon ke baare mein. aapko lagta hai ki samlaingikta sahaj aur natural hai? main logon ki swatantrata ki baat nahi kar rah, par independence ka matlab bilkul nahi ki hum nature ke sath khilwaad karein. aajadi ka matlab ye bhi nahi ki hum kisi ka khoon kar de. aajadi hai,sabko hai. par ye kaisi aajadi hai... ki hum patan ki or ja rahe hai.... maine judge sahab ke faisle par ungli uthayi hai... kyonki aapko nahi lagat is tarah ka koi samajik faisla dene se pahle unhe samaj ki sanskriti ke baare mein sonchna chahiye tha, logon ki aastha ke baare mein sonchna chahiye tha... agar aisa hai to ek din humein khule roop se sex karne ki bhi aajadi mil jayegi... aajadi ka matlab ye to nahi...
aapne sanskrtiti ke pairokaaron ke baare mein achhi rai di hai... main bhi maanta hun wo galat hai par iska matlab ye to nahi ki hum sab bhi waisa hi karein...
mere agle lekh ka intejaar kijiyega... is baar puri taiyaari ke sath aaunga...

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

अभिषेक जी धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर पधारनें के लिए,आपनें कहा कि कोर्ट लोगों की आस्था के बारे में सोचे? पर कोर्ट ने किसी को आस्था को
ठेस पहुंचानें वाला तो कोई काम नहीं किया। किस धर्म शास्त्र में किन्नरों की गिनती इस लोक के जीवों में नहीं होती? आप ये भी भली-भांति जानतें होंगें की हमारें देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में जानवरों तक को संरक्षण देनें के लिए नियम बनाएं जाते हैं उनको जीनें के अधिकार से वंचित करनें के लिए भी सज़ा का प्रावधान है, इंसान अपनी शक्तिय़ों और क्षमताओं को जानता था इसीलिए उसनें अपनें और प्रकृति के बीच इस पूरी उसके द्वारा बनाई गई हर चीज़ को सम्मान करनें के लिए अलग स्थान दिया। कुछ नियम कायदें बनाए, इंसान से बड़ा खतरनाक पशु इस सृष्टि में कोई नहीं है और उससे बड़ा सहिष्णु भी कोई नहीं। इसी देश में नारी को आज भी तिरस्कृत किया जाता है वो भी आपकी संस्कृति में ही है शायद! आप ही के किसी वेद ग्रंथ के बोल हैं कि "ढोल,गावंर,शूद्र,पशु,नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ।।"
सदियों तक इसे ही संस्कृति माना, और इसे आज भी लोग मानतें है, और ऐसे बहुतेरे उदारहरण है, जहां आपकी तथाकथिक संस्कृति को चुनौती दी जा सकती है और दी भी है कई समाज सुधारकों नें आपको पता भी होगा। यही देश था जिसनें की सती-प्रथा के वरुद्ध हुए आंदोलनों,स्त्री शिक्षा,दलितों के मंदिर में प्रवेश, विरोध किया था औऱ यही देश है जहां आज भी दहेज के लिए स्त्री को मार दिया जाता है, शायद यही संस्कृति इज़ाज़त देती होगी...बातें बहुत हैं दोस्त।
मेरे भाई संस्कृति नदी की धारा की तरह सतत् प्रवाहित रहती है, स्थान-स्थान पर रंग बदलती है, सबको देनें का नाम संस्कृति है...नदी की भांति । थौंपनें का नाम संस्कृति नहीं...स्वार्थ कहलाता हैं।

Unknown said...

chhote bhai ek baat samajh mai aa gayee ki tumhaaree sahaanubhooti ge culture ke jhandaabardaaro se hai. dukh ke baat itnee see ki abhe ye delhi high court ka decision hai. supreme court kaa nahee. bahas jaaree rahegee. doosre aapne mere lekh per 2 baar tippne dee iske liye saadhuvaad lekin koi tippnee nahee dee sirf apnaa ye lekh padhne kaa aadesh diya. badhiyaa lagtaa agar achchha buraa comment dete aur phir apnee link dete.