

लेकिन मैं विनोद जी से पूछना चाहता हूं कि क्या देश म जितनें अंतर जातीय विवाह 90 से लेकर आजतक हुए हैं क्या उनकी संख्या 1950 से 90(मंडल) तक से कम है?क्या देश में जितनें जातिगत अत्याचारों के मामले एससी-एसटी कमीशन में है या जो सामनें आए है (संख्या सामनें ना आनें वालो की ज्यादा है) वो सभी 90 के बाद की है? 90 से पहले के दौर में लोगों तक सूचना तो पूरी तरह तक पहुचती नहीं थी और आप कह रहे है कि "देश जातिगत बंधनों से ऊपर उठ रहा था, देश में अंतर जातीय विवाह हो रहे थे "विनोद जी क्या उस समय में (90 से पहले) किसी अख़बार में जाति के आधार पर शादी के विज्ञापन नहीं आते थे? 90 से पहले तक कितनें लोग सवर्ण (जनरल कैटगिरी) के सरकारी नौकरी पर या राजनीति में अच्छे पदों पर थे? और कितनें बाबू जगजीवन राम और कपूरी ठाकुर थे? जिस दौर की आप दुहाई दे रहे है ना, उसी दौर में एक दलित सरकारी कर्मचारी(कांशीराम) सरकारी तंत्र में भेदभाव के चलते अपनी नौकरी छोड़कर दलितों-अल्पसंख्यकों और पिछड़ों की आवाज को डीएस-4 और बामसेफ के माध्यम से चेतना की मशाल लिए आगे बढ़ रहा था। ये वही दौर था जब कांशीराम के भाषणों की कैसेटों को टेपरिकॉडर में सुनानें के लिए माहौल की तलाश में कई बार लोगों नें उच्च जातियों के अत्याचार सहे। ये वही दौर था जब 1994 में डीएस-4 को बसपा का नाम मिला। परंतु आपको लगता है कि एक वी.पी.सिंह आकर सारे देश में जातिगत भेदभाव फैला गया वरना तो देश के सवर्ण वर्ग के लोग दलितो से बेटी-रोटी का रिश्ता रखते थे। ये वी.पी.सिंह और मंडलियों(मंडल के कमीशन के समर्थक नेता) नें राहुल गांधी को देश के दलितों के घर में जाकर खाना खानें को मज़बूर कर दिया। आपका तर्क था कि देश में आरक्षण का आधार यदि आर्थिक होता तो शायद देश इस जातिगत भेदभाव, जिसके कारण हाल ही में युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की हत्या हुई है वो नहीं होती, याकि देश में ऐसे मामले कम देखनें को मिलते। विनोद जी मैं आपको बता दूं कि मैं भी उसी संस्थान का छात्र रहा हूं जहां निरुपमा और प्रियभांशू पड़ते थे। दोनों ही सवर्ण है और दोनों में से कोई भी आरक्षण के दायरे में नहीं आते। जातिगत भेदभाव आरक्षण का लाभ ना लेनें वाली जातियों में भी है और एक जाति में भी है, सवर्णों में भी वरीयता है और ब्राह्मणों में भी है। सरयूपारी-कानिबकुंज का भेद तो आप कोपता ही होगा, नहीं पता तो तो मैं आपको बता देता हूं मुझे भी लखनऊ के ही दो शुक्लाओं (टीवी पत्रकारों) नें बताया था। रावण को मारनें के बाद रामजी द्वारा किए गए रावण के श्राद को खानें के लिए जो ब्राह्मण सरयू नदी पार करके गए थे उन्हें कनिबकुंज ब्राह्मणों नें वापस आनें नहीं दिया और उनसे सारे संबध तोड़ दिए, क्योंकि रावण भी ब्राह्मण था और राम जी पर ब्रह्महत्या का पाप लगा था। आज भी वो लोग आपस में शादी-ब्याह का संबंध करने से बचते हैं। शुक्ला, तिवारी, पांडे, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, उपाध्याय उपनाम के लोग चौरसियाओं और त्यागीओं में शादी-ब्याह नहीं करते। वो तो किसी आरक्षण के दायरे में नहीं आते। शर्मा जी का तो कोई भरोसा ही नहीं करता शुक्ला,तिवारी,पांडे,द्विवेदी,त्रिवेदी,चतुर्वेदी और उपाध्याय लोगों का कहना है कि ये तो पता ही नहीं चलता कि ये (शर्मा जी) कौन से ब्राह्मण है? भूमिहार ब्राह्मण और भूमिहार ठाकुर अन्य ठाकुरों और ब्राह्मणों से शादी करनें के लिए जातिगत आडंबरों से आज तक ऊपर नहीं उठ पाए हैं। ये लोग भी आरक्षण के दायरे में नहीं आते। तो जब मामला सामजिक भेदभाव का हो तो उसे मिटानें या कम करनें के लिए या समाज के उस तबके को ऊपर उठानें के लिए सामजिक आधार होना महत्वपूर्ण ही नहीं आवश्यक है। जातिगत भेदभाव पुश्तों से चली आ रही सामंती सोच की देन है, ना कि बाबासाहब अंबेडकर या मंडल के समर्थक नेताओं की या किसी कमीशन की सिफारिशों की। सोच को बदलनें के लिए कोई आरक्षण बाधा नहीं बनता, बल्कि अपनी आवाज़ और बात कहनें का हक़ देता है। जातिगत जनगणना आवश्यक है, ताकि लोगों को पता चले कि सदियों से शोषण करती आ रही जातियों के पास आज भी कितना सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक वर्चस्व है तथा देश की कितनी बड़ी आबादी कभी साढ़े 22 फिसदी और कभी 27 फिसदी की हिस्सेदारी के लिए लड़ती है।
नवीन कुमार "रणवीर"