
ये कभी ना जान पाई वो?
जिसे जना कोख से,
उसे ही ना पहचान पाई वो?
लूटाती रही उसीपर अपना सब कुछ
खुद के लिए कुछ ना बचा पाई वो...
अपना सब कुछ देकर भी
कुछ ना किसी से मांग पाई वो?
हमेशा देना ही सीखा उसनें
दूसरों में ही अपनी जान पाई वो...
वो खुद के लिए भी ना बनीं कभी
समाज में किसी ना किसी से पहचान पाई वो...
कभी किसी की मां, कभी बेटी, कभी बहू,
कभी बहन, तो कभी पत्नी
बस यही कुछ नाम पाई वो?
खुद को दूसरों पर आश्रित देखना
यही इतनी ही पहचान पाई वो...
इसीलिए समाज में अबला खुद को
हमेशा जान पाई वो...
मांगा कभी जो हक़ उसनें
चरित्रहीनता का मान पाई वो...
कहां कभी जो गलत-सही तो
अपनों से ही अपमान पाई वो,
लांघीं कभी जो घर की चौखट
फिर ना कभी सम्मान पाई वो...
इसीलिए समाज में अबला खुद को
हमेशा जान पाई वो...
ज्ञान-गुणों की इस दुनिया में,
अपनी-सी पहचान पाई वो...
चूल्हा-चौका, कपडे-लत्ते, बर्तन-भांडों
से सम्मान पाई वो...
अपनी ही कोख से हमेशा
तिरस्कार और अपमान पाई वो....
इसीलिए समाज में अबला खुद को
हमेशा जान पाई वो...
देवी बनकर दीवार पर टंग जाती
तो कभी चौकी पर मूरत में टिकती
बस इतना ही एहसान पाई वो...
ना कहे किसी से, ना रोके किसी को
दिल में ना अरमान पाई वो...
इसीलिए समाज में अबला खुद को
हमेशा जान पाई वो...।