Tuesday, October 4, 2011

जो दिया उसने,
उसे ही मान लिया अपना मैनें,
जो दिया उसने,
उसे ही जान लिया सपना मैनें...
जो दिया उसने,
उसे कभी ना न कर पाया मैं...
लिखा मान अपनी किस्मत का,
कहा मान लिया उसका मैनें...

अब न आस है कुछ पाने की,
ना राह है कहीं जाने की,
है हवाले उसके मेरी मंजिलों की डगर,
वो मालिक है ले जाए जहां मेंरी जिंदगी का सफ़र...

Saturday, April 9, 2011

नींबूज़ ऑन...अनशन गॉन!


मुझे अफसोस है कि इस देश में तह़रीर चौक बना पाना मुश्किल है, आज जंतर-मंतर पर एनजीओ वालो और मीडिया वालों के अलावा तो कोई दिखा नहीं? हां कुछ वो छात्र ज़रूर दिखे जिनके मां-बापों ने भारी-भारी डोनेशन(रिश्वत) देकर उन्हें कॉंन्वेंट स्कूलों में पढ़ाया, जिनके घरों में और फैक्टरियों में बाल-मज़दूरी आम है, जो किसी भी स्थिति में श्रम कानूनों की अवहेलना करते है बिना सीट बेल्ट लगाए गाड़ियां चलाते है पकड़े जानें पर रिश्वत देते है! सबसे ज्यादा संख्या में वे लोग थे जो विकेंड में फोटो सेशन करवाना चाहते थे...दो करोड़ दिल्लीवासी और 125 करोड़ देशवासियों में से 5 हज़ार लोग मौजूद थे जिनमें से 2 हज़ार मीडियाकर्मी थे और २ हज़ार वे लोग थे जो किसी ना किसी तरीके से किसी एनजीओ के साथ जुड़े रहे हैं, एक हज़ार वे लोग थे जो ईमानदार अन्ना का हौंसला बढ़ाने के लिए आए थे, लोगों ने इस प्लेटफॉर्म को भुनाया है। जंतर-मंतर लोकतंत्र का वो पटल है जहां से ना जाने कितनें लोग हर रोज़ अपनी बात को कहने के लिए देश के हर कोने से आते है और वो बेचारे ना जाने कितनें दिनों तक धरने पर बैठे रहते है लेकिन आम जनता ने विकएंड पर अपनी अटेंडेंस एक अच्छे काम पर लगा दी है। जनता की जीत अभी बाकि है...इंतज़ार कीजिए।



स्वामी अग्निवेश ने नींबूज़(पेप्सी प्रॉडक्ट) पिलाकर तोड़ा अनशन


स्वामी अग्निवेश ने नींबूज़(पेप्सी प्रॉडक्ट) पिलाकर तोड़ा अनशन






Thursday, January 27, 2011

बिहारी साथी ध्यान दें।



मुगल सराय से दिल्ली आते समय मगध एक्सप्रेस में लगा ये प्रचार काम की तलाश में बिहार से दिल्ली आनेवालों को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्र सरकार की मनरेगा से भी ज्यादा भरोसा दिलाता दिखाई देता है। विजय कुमार नाम के इन महोदय से बिहार के कितनें लोग संपर्क कर पाये है मैं नहीं जानता, परंतु बिहार के लेखक,पत्रकार,साहित्यकार और बुद्दिजीवियों ने भी अपने बिहार के लिए ऐसा माग़दा नहीं दिखाया होगा। रोज़गार के इस सागर से एक-एक लोटा सभी बेरोज़गार बिहारी भाई-बहन भर लें तो कम-से-कम किसी को अपनें घर से दूर जाकर किसी चाचा-भतीजे के गुंड़ों की पिटाई तो नहीं खानी पढ़ेगी। और ना ही बिहार के नेता रेल मंत्रालय मांगेगे! क्योंकि रोज़गार होगा तो बिहार से दिल्ली-मुंबई ट्रेन चला कर जनता को बाहर का रास्ता दिखाने का विकल्प बचेगा नहीं।

Friday, January 21, 2011

प्रेम का स्वरूप!


दिल्ली के सरकारी स्कूल में ग्यारवीं में पढ़ते वक्त एक दोस्त की प्रेम कहानी के चर्चे हमेशा यारों की बातचीत का विषय रहते थे। स्कूल के नज़दीक ही रहनें वाला नरेंद्र जाति से दलित था, उसके पिताजी किसी फैक्ट्री में मज़दूरी करते थे और घर में ही चाचा की दर्जी की दुकान थी। यौवन की उस उम्र में नरेंद्र को अपने मोहल्ले की ही डॉली से प्रेम हो गया वो भी हमारे ही स्कूल में सुबह की शिफ्ट में पढ़ती थी, लड़को की शिफ्ट दोपहर की थी। डॉली जाति से ब्राह्मण थी उसके पिता वकील थे। सामान्यत: जैसा होता है मोहल्ले में दलित जातियों की अपेक्षा उनका अधिक रसूख़ था। ग्यारवीं और बारहवीं क्लास के दौरान नरेंद्र और डॉली की प्रेम कहानी के चर्चे क्लास में आम थे। सरकारी स्कूल में किसी की प्रेम कहानी होना एक बड़ी बात थी। नरेंद्र पढ़नें में अच्छा था, वो हम इसलिए भी कह सकते है क्योंकि वह कभी भी फेल नहीं हुआ था क्योंकि स्कूल में एक बार में दसवीं पास करनें वाले दो-तीन ही छात्र थे और ग्यारवीं में कॉमर्स मिलना स्कूल में श्रेष्ठ माना जाता था ,क्योंकि साइंस नहीं थी। ख़ैर स्कूल पास करनें के बाद मेरी नरेंद्र से मुलाकात काफी सालों तक नहीं हुई। मैनें कॉलेज में बी.कॉम में एडमिश्न ले लिया और मेरी क्लास से क्या, पूरे स्कूल से मैं ही एक ऐसा छात्र था जिसनें रेगुलर कॉलेज में एडमिश्न लिया। मुझसे ज्यादा नंबर लेनें वाले नरेंद्र ने पारिवारिक स्तिथि के चलते कोई पार्ट टाइम काम पकड़ लिया था और ऐसे ही कई कारणों के चलते बाकि दोस्तों ने भी ऐसा ही कुछ किया। कॉलेज से आते वक्त कभी नरेंद्र के मोहल्ले के पनवाड़ी की दुकान से सिगरेट लेते वक्त नरेंद्र का हाल-चाल जान लेता था। वो दुकान मेरे ही स्कूल में आर्ट्स में पढ़नें वाले सिब्बू की थी,अब वो दुकान ही संभालता था। सिब्बू से पता चला कि नरेंद्र की प्रेमिका डॉली की शादी हो चुकी है उसके पिताजी ने जाति और रसूख़ के चलते उसकी शादी ज़बरदस्ती कहीं और कर दी है। मेरा मन हुआ कि एक बार नरेंद्र से मिला जाए, मैं उसके घर गया और शायद दो-तीन साल के बाद मैंनें नरेंद्र को देखा था। देखनें में मुझे वो बिल्कुल मुरझाया सा, हताश सा दिखा। मैनें उससे डॉली(उसकी प्रेमिका) की बात छेड़ी तो उसने कुछ जवाब नहीं दिया। मेरे काफी देर उसे दिलासा देनें पर वो बोला तो उसकी आवाज़ में एक विश्वास था ऐसा विश्वास जिससे मैं कभी रूबरु नहीं हुआ था और जिसे समझनें में मुझे कई साल लग गए। उसनें कहा कि “वो कहीं नहीं गई नवीन भाई वो आएगी...मेरे पास ही आएगी...” मुझे उसका ये कहना एक हारे हुए आशिक की खुद को दी जानें वाली दिलासा लगी। और मैं जो अपनें को भावनाओं से ऊपर देखता था, उसे जीवन में आगे बढ़नें का धीरज बंधा रहा था। मैनें उसे सलाह दी कि “अब मत कुछ सोचो और छोड़ दो उसे वो अब नहीं आएगी, एक बार यदि लड़की पति के घर गई तो वो पति की हो गई बस! और तुम क्या सोचते हो कि वो तुम्हें अभी भी याद करती होगी या ऐसे ही तड़पती होगी जैसे तुम तड़पते हो? मेरे दोस्त नरेंद्र ऐसा नहीं होता वो खुश है अपनें जीवन में उसके मां-बाप की इज्जत, समाज का दिखावा, ऊंची जाति का रूबाब उसे कभी तुम्हारी याद नहीं आनें देगा मेरे दोस्त भूल जाओ उसे”। नरेंद्र ने मेरी तरफ एक कुटिल मुस्कान फेंकी और कहा कि “नवीन भाई तुम नहीं समझोगे मैं जानता हूं और वो जानती है कि हम एक ही है, आज भी मेरी है उसके पास रहते हुए भी, उसकी आत्मा तो मुझमें ही है, वो आएगी मेरे पास देखना तुम और जमानें के मुंह पर तमाचा मार के आएगी”। मुझे नरेंद्र की बातों में पागलपन लगा और मैनें उसे भविष्य की बधाई देते हुए अलविदा कह दिया। इसके बाद मैं एम.ए दर्शनशास्त्र पढ़नें के हिंदू कॉलेज चला गया फिर मेरा अपनें स्कूल के दोस्तों से जो रहा-सहा संपर्क था वो भी टूट सा गया। करीब एक साल बाद मेरे मोबाइल पर एक फोन आया "नवीन भाई मैं नरेंद्र बोल रहा हूं" मुझे लगा कौन नरेंद्र ग्रेजुएशन और एम.ए के दोस्तों में तो कोई नरेंद्र नहीं है, फिर उसनें कहा कि स्कूल वाला नरेंद्र, मैं पहचान गया था। नरेंद्र से हाल-चाल पूछा तो उसनें बताया कि आज शाम को मेरी शादी की पार्टी है और मुझे जरूर आना है।
मैं हैरान हुआ कि अचानक शादी कैसे? तो उसनें बताया कि आप आओ तो सही। मैं शाम को नरेंद्र के घर गया तो देखा डॉली और उसकी शादी हो चुकी है। मुझे बड़ी हैरानी हुई नरेंद्र ने मुझे पहली बार डॉली से मिलवाया मैं नरेंद्र से उम्र में बड़ा था तो उसनें मेरे पांव छूए। पार्टी में स्कूल के बाकि दोस्तों भी आए थे उनसे पता चला कि डॉली के पति ने उसे खुद तलाक़ दे दिया था, डॉली ने अपनें प्रेम की निष्ठा को बचाए रखा था, जिसके आगे वो हार गया था और अपनी कन्नी-काट बेटी का ब्याह रचानें वाले डॉली के मां-बाप ने अपनी बेटी को अपनानें से मना कर दिया था। नरेंद्र ने तो अपने प्रेम की लौ को जालाये रखा था तो उसनें तो डॉली को अपनाना ही था। प्रेम में अटूट निष्ठा के उदारहण बनें डॉली-नरेंद्र के सामने ज़मानें की भी हार हुई और प्रेम में व्यवाहरिकरता का ज्ञान-बघारनें वालों की भी। आज नरेंद्र एक एकाउंटेंट है और डॉली गृहणी, उनके एक बेटी भी है। मुझे नरेंद्र ने एक सीख दी की यदि अपने प्रेम पर विश्वास और साथी में निष्ठा हो तो उस प्रेम को कोई समाज,रूत्बा,पैसा,जाति,धर्म,संस्कृति डिगा नहीं सकती। ऐसे उदाहरण प्रेम के वास्तविक स्वरूप में विरले ही देखनें को मिलते है।