Friday, July 24, 2009

पंचायती फरमानों की जरूरत !

झज्जर जिले के ढ़राना गांव के रविंद्र ने कादियान गोत्र की शिल्पा से चार महीनें पहले शादी की थी, शादी के बाद वो शिल्पा को लेकर दिल्ली चला गया था। रविंद्र का गोत्र गहलोत है लेकिन जिस पुश्तैनी गांव में रविंद्र के माता-पिता रहते है उस गांव में कादियान गोत्र के लोगों की संख्या ज्यादा है। है तो दोनों ही जाट समुदाय के, लेकिन विवाद गोत्र को लेकर ये हुआ जब रविंद्र अपनी पत्नी शिल्पा को लेकर गांव गया। बवाल ये हुआ की बारह गांवों की खाब पंचायत जो कि कादियान गोत्र की थी, उसनें फरमान जारी किया की ये लड़की शिल्पा जो कि रविंद्र की पत्नी है वो इसकी पत्नी नहीं हो सकती क्यों कि जिस कादियान गोत्र कि ये लड़की है वो इस गांव का गोत्र है(यानि की बहुसंख्य में लोग कादियान गोत्र के हैं) गांव के गोत्र की लड़की गांव के लड़के से शादी नहीं कर सकती वो उसकी बहन लगेगी। इस गांव(ढराना) के लोग शिल्पा को बहु या भाभी नहीं स्वीकार कर सकते वो उनकी बेटी है और बेटी अपनें ही भाई से नहीं ब्याही जाती।

सवाल है जब शादी होती है तो कुछ गोत्र बचानें होते हैं ये हरियाणा और राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होता है जहां तक मैं जानता हूं, मां का गोत्र खुद का गोत्र और दादी का गोत्र ये तीन गोत्र विशेष तौर बाधा उत्पन्न करते हैं शादी-विवाह में। गांव के गोत्र कभी जब मायनें रखा करते थे जब कभी एक गांव में एक ही परिवार रहा करता था तो इसलिए समय के साथ-साथ वो बढ़ता जाता औऱ उस गांव में उनकी संख्या बढ़ जाती पूरा गांव एक गोत्र का कहलाया जाता। लेकिन आज के परिवेश में रोजी-रोटी के लिए आदमी को भटकना पड़ता है कभी कौन गांव,कभी कौन शहर, सालों बीत जाते हैं एक गांव में रहते औऱ कमाते खाते दो-तीन गोत्र और आ जाते हैं उसी गांव में कमानें के लिए या तो जमीन खरीद लेते है या मज़दूरी करते हैं। फिर कौन गांव से आए थे कौन से नहीं बस यही याद करनें के लिए रोटी खानें को मिली जमीन को खोना थोड़े है। जिंदगी चलती रहती है। अब शादी करने के लिए यदि गांवों के गोत्र को बचानें लगे तो मिल जाएगी शादी के लिए लड़की या लड़का। यहीं कारण है कि शादी के लिए हरियाणा में शादी के लिए लड़की मिलना मुश्किल हो जाती है। एक तो कन्या भ्रूणहत्या के मामले में अव्वल है हरियाणा और नारी के शोषण की खबर तो आपको जब मिलेगी जब वो घर से बाहर निकलेगी आज भी हरियाणा में लड़की को हिंदू धर्म में सबसे ज्यादा तुगलकी फरमानों से गुजराना पड़ता है। मर्द बैठे हुक्का गुडगुडाएंगें और उनकी औरतें(पत्नियां) खेत में जाएंगी काम करेंगी, सुबह 4 बजे से पहले उठ कर पशुओं को सानी करेगी(चारा बनाना) दूध निकालेगी, घर का काम अलग करेंगी। शादी के लिए लड़कियों का मिलना कितना मुश्किल वैसे ही हो जाता है हरियाणा के युवकों के लिए उपर से पंचायत ऐसे फरमान जारी करती है जिससे कि जिस बेचारे कि शादी हुई हो वो भी टूट जाऐ। अब शादी के लिए कितनें गोत्र बचाए जाते हैं ये आपको जरा बता दिया जाऐ...पहला गोत्र लड़के या लड़की का, मां का गोत्र, दादी का गोत्र, बड़ी मां का गोत्र(ताई के गोत्र का लड़का या लड़की ना हो) चाची का गोत्र(सामनें ना हो) गांव का गोत्र ये सभी गोत्र आपको एक जाति में शादी करनें के लिए बचानें है। अब ऐसे में पंचायत किसे बताएगी की इससे शादी करे। औऱ फिर राज्य की भी बात आ जाती है रहने सहन का तरीका, भाई हरियाणा में ही नहीं दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भी जाट समुदाय के लोग रहते उनमें भी हेर-फेर करना होता है। तो कहां करेंगे शादी औऱ कहां न करें? खैर हमारे देश का संविधान तो हमें इजाज़त नहीं देता इन सभी गोत्रों को मिलानें की या धर्म के आधार पर या जाति के आधार पर लेकिन समाज में पंचायत व्यवस्था इंसान अपनी सहुलियत के लिए बनाता है, ताकि उसके अपनें स्वयं के या आसपास के लोगों के बीच वैमनस्य न रहे और समरसता बनी रहे। लेकिन यदि ऐेसे फरमान ही लगती रही पंचायते तो कोई क्यों मानेंगा इन पंचायतों को कोई क्यों गांवों में रहेगा और कोई क्यों कहेगा "मेरा हरियाणा... जहां है दूध-दही का खाणा"।

Wednesday, July 15, 2009

कौमार्य की अग्निपरीक्षा!

मध्य प्रदेश का शहडोल जिला आजकल सुर्खियों में हैं, क्यों है? शायद आप सोच रहे होंगे की विकास पुरुष की संज्ञा दिए जानें वाले शिवराज सिंह चौहान नें कोई नया करतब दिखाया होगा... विकास का नया मॉडल पेश किया होगा... आपको बताते हैं कि इस विकास पुरुष ने किस प्रकार एक तुगलकी फरमान से जनकल्याण की योजना बनाईं है। मध्य प्रदेश सरकार के कन्यादान योजना के तहत शहडोल जिले में दलित और आदिवासी महिलाओं के सामूहिक विवाह का आयोजन कराया गया। जिसमें कि सरकार नें 152 लड़कियों की शादी करवानें की व्यव्स्था की। सरकार इस योजना के तहत प्रत्येक लड़की को 5 हज़ार रु और घरेलू सामान देती है। "कन्यादान योजना" यानि सरकार (गरीबों) दलितों और आदिवासियों की बेटियों का कन्यादान करेगी जिसे कि हम यूं भी समझ सकते हैं कि सरकार के मुखिया तो राज्य के मुख्यमंत्री माननीय विकास पुरुष, हिंदू हृदय सम्राट, शिवराज सिंह चौहान हैं। अब ये राज्य की अपनीं बेटियों का कन्यादान किस प्रकार करते हैं आपको बताते हैं... इस योजना को सरकार कल्याणकारी योजना करार देती है और इसके तहत सामाजिक सभ्याचार के नए तानें-बानें बुनती हैं। एक संदेश इस रूप में भी देती हैं कि हम दलितों और आदिवासियों के कितना हित साधते हैं।
लेकिन सच्चाई जान कर आप स्वंय फैसला करेंगे की ये कौन से सभ्य समाज का नियम हैं जहां पर शादी से पहले किसी लड़की को अपनें गर्भवती न होनें के सबूत देनें होते हैं? जी हां दोस्तों ये बात बिल्कुल सही है कि इस प्रकार(सरकारी खज़ानें से) यदि किसी गरीब दलित या आदिवासी लड़की को शादी करवानीं है तो उसे अपनी मेडिकल जांच करवानी होती है, कि कहीं वो लड़की गर्भवती तो नहीं है? ये सवाल करती है मध्य प्रदेश सरकार और वो भी स्वंय के प्रमाण के बिना माननें को तैयार नहीं होती की लड़की झूठ तो नहीं बोल रही। आप सोच के देखिए की क्या भारत में होनें वाले सारे विवाह क्या इसी कसौटी पर होते हैं ? और यदि ऐसा होता है तो आपको और इस तथाकथित सभ्य समाज को और ऐसी सरकार को अधिकार है इसे सही साबित करनें का! इस मुद्दे पर जब विकास पुरुष शिवराज सिंह चौहान से पूछा गया तो सिंह साहब कहते हैं कि "प्रेगनेंसी टेस्ट नहीं करवाया गया है कौमार्य परीक्षण(वर्जीनिटी टेस्ट) करवाया गया है"। जी साहब वाह! आप तो महान हैं! मात्र 5000 हजार रूपयें में आपकी सरकार को ये अधिकार मिल जाता है कि आप किसी दलित औऱ आदिवासी लड़की से ये जान सकते हैं कि आपकी महावारी(पीरियड्स) कब हुई थी? आपनें कभी सेक्स तो नहीं किया ? यही ना... और क्या होता है कौमार्य परीक्षण ? क्या पता लगाना चाहती थी आपकी सरकार? मात्र पांच हज़ार रुपयों के लिए आप किसी भी लड़की को मज़बूर करते हैं कि वो अब आपसे अपनें चरित्र का प्रमाण पत्र प्राप्त करेंगी? सवाल बहुत निकलकर आते हैं...म.प्र सरकार की ये योजना यदि सवर्ण वर्ग की गरीब लड़कियों के लिए होती तो क्या सरकार ऐसा कोई नियम काय़दा बनाती? यदि बनाती तो क्या हमारे समाज के तमाम धर्मावलंबी (ख़ासकर आपकी पार्टी के लोग) इसे उतना ही वाज़िब ठहराते जितना की आज ठहरा रहे हैं? या आपकी विचारधारा में ये महिला की अग्निपरीक्षा की प्रासंगिकता है? आपका ये तुर्रा है कि ये जो महिलाएं होती है ऐसे विवाह में 5000 रु. के लालच में शादीशुदा होनें के बावजूद इस योजना का लाभ उठाती हैं, इसीलिए हमारे जांच करनें पर हमें 14 लड़कियां प्रेगनेंट पाई गईं, और बात भी तय है कि उन उन गरीब लड़कियों को ऐजेंटों द्वारा उनकी गरीबी का लाभ उठाकर ऐसे विवाहों में भेजा जाता हैं, उसके लिए आपकी सरकार कुछ नहीं करेगी। सारा ज़ोर आपका जो है वो महिलाओं पर ही चलता है। शिवराज जी आप साइकिल चलाकर मीडिया को बताते हैं कि मैं पैट्रोल की बचत करता हूं औऱ साईकिल से ऑफिस जाता हूं, लेकिन अब आपकी ये नई योजना है कि सरकारी लाभ यदि किसी को मिले तो वो भी कौमार्य परीक्षण के बाद, आप केवल लड़कियों का ही क्यों कौमार्य परीक्षण(वर्जीनिटी टेस्ट) करवातें हैं? लड़को का भी तो करवाइयें? क्या पता कोई लड़का किसी और महिला का पति हो? या पहले से किसी बच्चे का बाप हो? क्या पता की वो पहले से भी कभी-न-कभी सेक्स करता आ रहा हो? क्य़ा पता कि आपका वो "मर्द" बिना शादी के ही बाप बना हुआ हो? क्या सबूत होता है आपके पास उस "मर्द" कौमार्य का? मेडिकल साइंस की ऐसी कौन सी तकनीक से पता लगाएंगे आपके डॉक्टर कि इस युवक/नौजवान/आदमी/पुरुष/मर्द ने आज तक सेक्स नहीं किया? किसी के बच्चे का बाप नहीं है? किसी औरत़ का पति नहीं है? या कि ये कि वो बाप बननें वाला है या नहीं?
गर्भ में यदि बच्चा हो तो अल्ट्रासाउंड के जरिये लिंग की जांच करवाना गैर कानूनी है लेकिन शादी से पहले लड़कियों का कौमार्य परीक्षण(वर्जीनिटी टेस्ट) करवाना शायद ये कानून बन गया हो मध्य प्रदेश में! और यदि यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं की हर लड़की को शादी से पहेल किसी एमबीबीएस, गायनाकॉलोजिस्ट से चरित्र प्रमाण-पत्र बनावाना होगा। खैर राम राज्य के लिए शायद ये प्रसंग भी आवश्यक है बिना इसके(अग्निपरीक्षा) आपके राम राज्य़ की अवधारणा वास्तविकता में कैसे परिवर्तित होगी भला...!

Friday, July 3, 2009

धारा-377...ऐसा देस है मेरा!

2 जुलाई 2009 दिल्ली हाईकोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को लेकर सालों से चले आ रहे बवाल पर कानूनी मोहर लगाते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 से बाहर माना है। कोर्ट का कहना हैं कि समलैंगिकों पर धारा 377 के तहत कार्यवाही करना भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान की धारा 14, 15 और 21 द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन है। अब सवाल उठता है की आईपीसी की धारा 377 क्या है, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति( स्त्री या पुरुष) के साथ अप्राकृतिक यौन संबध बनानें पर या किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनानें पर उम्र कैद या 10 साल की सजा व जुर्मानें का प्रावधान है। जिससे कि बहुतेरे समलैंगिक जोड़ो (विशेषकर पुरुषों) को प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। गैरकानूनी होनें की वजह से इन जोड़ों के साथ रह कर जीवन-यापन करनें को समाज और प्रशासन गलत मानता रहा है। हालांकि अब भी यह कहना मुश्किल होगा कि प्यार के इस रूप को समाज स्वीकार करता है या नहीं लेकिन कानून तो अब प्यार और विश्वास के इस अनूठे संगम में अवरोध नहीं बन सकता। क्योंकि कानून के मुताबिक इस धारा(377) के तहत ही समलैंगिकों की इस अभिव्यक्ति पर विराम लगा था। कुछ थे जो खुलकर अपनें समलैंगिक होनें की बात को स्वीकार करते लेकिन कानूनी दांव पेंच के आगे वे भी हाथ उठा लेते। समलैंगिकों के अधिकारों के लिए समय-समय पर कई गैर सरकारी संगठन आगे आए और काफी हद उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई। और आज ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन "नाज़ फाउंडेशन" की मुहिम रगं लाई औऱ कोर्ट को ये मानना पड़ा कि 1860 में बनीं धारा 377 को वास्तविक परिवेश में केवल नाबालिग के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनानें और जानवरों के साथ यौन संबध बनानें के लिए ही उचित समझा जाए, एक लिंग के दो व्यक्ति जो कि बालिग हो अपनी मर्जी से साथ रह सकते हैं। अब सवाल आता है विरोध औऱ मान्यता का? विरोध तो कल भी हुआ था औऱ आगे भी होगा, क्योकिं कानूनी मान्यता के आधार पर भी भारत में ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो खुद को भारतीय संस्कृति के पैरोकार मानते हैं औऱ खुद आज तक पता नहीं कितनी बार कानून की धज्जियां उड़ा चुके हैं। ऐसे संगठन है जो यह जानते हैं कि देश का संविधान हमें धर्म, लिगं, क्षेत्र, जाति के नाम पर अलग नहीं करता हैं, जो जनाते है कि देश धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी किसी मस्जिद-गिरजाघर को तोड़ देते हैं, जो ट्रेन जला देते हैं, जो अपनें ही देश में रोटी कमानें-खानें के लिए आए मज़दूरों को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटते है, जो सदियों से सामंतवाद और जातिवाद की चोट से ग्रस्त लोगों के घरों में आग लगा कर उनसे जीनें के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं, जो किसी महिला को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनें हक़ के लिए बंदूक उठा ले और डाकू फूलन देवी बन जाए...ये तो बानगी भी नहीं है दोस्तों...ऐसा देस है मेरा!
अब देखते हैं कि समाज के इस नए पहलू को किन-किन प्रतिक्रियाओं से गुजराना होगा, क्या ऐसे समाज से आप आशा करते हैं कि वो इस सब पर खुलकर सामनें आएगा और इसे स्वीकार करेगा, कानून आपनी जगह सही हो सकता है। नैतिकता के माएनें लेकिन खुद ही सीखनें होते हैं। मैनें आपको बता दिया है कि किस प्रकार कानून का अमल किया गया है इस देश में। न्याय प्रक्रिया तक बात को पहुचानें के लिए भी तो आवाज चाहिए औऱ आवाज के माध्यम किसके पास है और वे किस सोच से इत्तीफ़ाक़ रखते हैं ये भी मायनें रखता है। आज देश में हमारे पत्रकारों की सोच सभी विषयों पर उदारवादी दिखती है कुछ संघी पत्रकारों को छोड़कर, लेकिन क्या इस विषय पर कोई पत्रकार सही और गलत परिभाषित करेगा? क्या कोई पत्रकार समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलानें की मांग को सही ठहाराऐगा ? मैनें देखा कि ब्लॉग पर भी लोग इस विषय पर कुछ लिखनें से डर रहे है, और जो लिख रहे है वो केवल कोर्ट के फैसले की पुष्टि भर के लिए अपनी उदारवादी सोच की उपस्थिति भर दर्शा रहे हैं। शायद उन्हें भी डर है कि कहीं जब हम कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो लोग समझ लेते हैं कि हम कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी है उसी प्रकार यदि हम इस विषय पर लिखे तो शायद हमें भी लोग इसी श्रेणी में ले आएंगे। खैर ये तो सोच है अपनी-अपनी लेकिन सोच संवैधानिक हो ये संभव नहीं? एक सोच का वर्णन तो मैनें इस लेख में कर ही दिया है । अब देखना है कि यही समाज इस नए नियम को किस प्रकार लेता है, देखना दिलचस्प होगा, वैसे उम्मीद तो वही है (विरोध) जो कि पहले बताया गया है । लेकिन अब मामला ये देखना पड़ेगा की यहां पर कोई क्षेत्र, जाति, धर्म, बोली-भाषा, अमीरी-गरीबी का दंश जो भारतीय समाज में प्यार के आड़े आता रहा है, शायद वो केवल ये माननें भर से कम हो जाए कि लिंग तो समान नहीं है ना, बाकि सारी विषमताएं एक मान ली जाएंगी शायद...।