Monday, November 24, 2008

दिल्ली का चुनावी समर

दिल्ली विधान सभा चुनावों जैसे-जैसे नजदीक आ रहे है, कांग्रेस की चिंता बढ़ती जा रही है। पहले ही महंगाई, बुल्डोजर,और कानून व्यवस्था पर फजीहत झेल चुकी कांग्रेस शायद अब कोई जोखिम उठाना नहीं चाहती...पहले दिल्ली देहात के गांवों को लाल डोरे में शामिल करके आपने देहाती वोट बैंक को सुरक्षित करने का पैंतरा चला गया फिर 1500अनाधिकृत कॉलोनियों को अधिकृत करने का फरमान जारी किया...पर जब लगा की असली पैंतरा भाजपा ने खेला है...विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके तो कांग्रेस की समझो रीढ़ की हड्डी टूट गई हो...

बताते हैं कैसे...प्रो विजय कुमार मल्होत्रा दिल्ली के पंजाबी समुदाय में एक ऐसा नाम है...जो शायद मदन लाल खुराना के बाद सबसे परिचित व्यक्ति है और दिल्ली की राजनीति में पंजाबी समुदाय का कितना महत्व है ये शायद आपको हाल ही में दिल्ली हुई दुकानों की सीलिंग के दौरान ही देख लिया होगा...

दिल्ली के चुनावों में सत्ता तक पहुंचाने में सबसे ज्यादा अगर किसी समुदाय की भूमिका रहती है तो वो है पंजाबी, जाट, और दलित। इसमें कोई दो राय नही जब दिल्ली के दो सबसे प्रमुख समुदायों (पंजाबी और जाट) के नेता मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा एक साथ थे(1993) तो भाजपा ने दिल्ली की सत्ता हासिल करनें में कामयाब रही थी...और कांग्रेस के पास केवल अपना पुराना दलित वोट बैंक शेष बचा था... इसीलिए वो सत्ता के सिंहासन से दूर रही थी...

वहीं, जैसे ही खुराना-साहिब सिंह के बीच अनबन शुरु हुई उसका भुगतान भाजपा को 98के चुनावों में हार के रूप में करना पड़ा और यही हाल भाजपा का 2003 में भी हुआ खुराना अकेले पड़ गए साहिब सिंह से मतभेत बरकरार था ... इसके बाद से आज तक कांग्रेस ने अपने इस वोट बैंक को सजो कर रखा था... आज भाजपा में ना तो खुराना है और ना ही सहिब सिंह इस दुनिया में रहें है...दिल्ली प्रदेश भाजपा में भी कोई बड़ा पंजाबी नेता नही था...तो फिर मल्होत्राजी को संसद से बुलाना पड़ा...जिनके बराबर का दिल्ली प्रदेश कांग्रेस में तो कोई नेता नहीं, न सुभाष चोपड़ा, न कपिल सिब्बल, न आर के आनंद...

इस बार के चुनावों में भाजपा के पास पंजाबी वोट बैंक के लिए तो नेता है ही, वहीं जाट लॉबी के लिए बाहरी दिल्ली से सांसद सज्जन कुमार ने दिल्ली देहात को सही से लामबंद किया हुआ है...हां कुछ एक दिल्ली देहात के गांवों में गुजर्र वोट अहम भूमिका निभाएंगे, लेकिन अभी तक उनका रुझान बसपा की ओर ही दिख रहा है...रही बात दिल्ली के दलित वोटरों की तो इनकी भूमिका इतनी होती है की किसी भी पार्टी को सत्ता तक पहुंचने के लिए इनके दरवाजे जाना बेहद जरूरी हो जाता है...

दिल्ली में 44जे जे कॉलोनियां है जिनमें अच्छी ख़ासी तादात दलित रहते हैं। पहले से ये वोट बैंक कांग्रेस के हाथ में था पर इस बार बसपा के आने से कांग्रेस को अपने दलित वोट बैंक पर सेंध लगने की भनक पड़ गई है, पहले भी यहां से बसपा उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहा था। तभी तो मंगोल पुरी जे जे कॉलोनी में खुद कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को रैली को संबोधित करने के लिए आना पड़ा... वहीं यूपी क्वीन मायावती ने रैली के लिए पूर्वी दिल्ली का त्रिलोक पुरी चुना, क्योंकि यहां भी अच्छा खासी दलितों की संख्या है ही साथ ही गुर्जरों के भी कई गांव है... बहनजी को दलित-गुर्जरो से बहनजी का पुराना नाता है... इस सब घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो जाती है की दिल्ली की सत्ता पर तीन जातियों का वोट तीन दलों में विभाजित हो रहा है...पंजाबी भाजपा, जाट कांग्रेस, दलित बसपा...अब देखना है की ऊंट किस करवट बैठता है...सोचने वाली बात है कि भाजपा आज भी इस स्थिति में नही है इसका कारण है कि दिल्ली प्रदेश में भाजपा के पास कोई भी नेता इस समय तो नहीं है...जो कि भाजपा को जीत की दहलीज तक ले जाए...।

Friday, November 14, 2008

बदलते नेता और हम...

दिल्ली में जैसे-जैसे सर्दी बढ़ रही है, चुनावी सरगर्मी भी उसी रुबाब में आ रही है, नेताओं के सफेद कुर्ते तो बाहर निकल ही आए, साथ में नेताजी के समर्थको ने भी लगे हाथ सफेद रंग की पैन्ट-शर्ट निकाल ली है। भाई...क्या पता कब कोई टी.वी चैनल का कैमरामैन सामने आ जाए और हमें नारे लगाने पड़ जाए....भई चुनावी मौसम जो है.... जिस इंसान को आप ने अपने मुहल्ले में भी कम देखा होगा वो अचानक आप से आ कर कहता है की "ये मेरे बड़े भाई है मैं आपके ही मुहल्ले में रहता हूं, कृप्या इन्हें ही वोट दीजिएगा" साथ में आने वाले भाई के जाने पर आप सोच में पड़ जाएंगे की आखिर ये बंदा आपको कैसे जानता है... खैर जाने दीजिए।

चुनावी मौसम में फ़िजा का यूं बदलना लाज़मी है...

आप बदले न बदले, पर सोच बदलना लाज़मी है...

जी हां दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठेगा? ये तो तय कर पाना अभी मुश्किल है। पर ये बात भी दीगर नहीं की दिल्ली के ये चुनाव पहले हुए दो विधानसभा चुनावों से भिन्न होंगे...आज के नेता भी जान चुके है.......... कि अब न तो वो कार्यकर्ता है और न ही नेता।

आज जो नेता आपके साथ खड़ा आपके नाम के नारे लगा रहा है वो अगले चुनावों में आपकी ही सीट पर टिकट की ताल ठोक देगा...आपकी पार्टी से नही मिले तो क्या? इस चुनाव में आपके साथ लगकर कमा लेंगे...ओह.......... मेरा मतलब था की इस बार आपके साथ लगकर काम कर लेंगे और अगली बार बसपा से टिकट की दावेदारी ठोक देंगे।

भैया सीधा-साधा फार्मूला है, इस बार किसी भी नेता के साथ मिलकर, आप चमचे बनकर कमा ले...ताकि आप अगले साल की टिकट का प्रबंध हो जाए...फिर अपनी पार्टी नही तो क्या बसपा ने दिल्ली में दस्तक दे दी है...अब केवल एक विकल्प नहीं बचा रहा... आज दिल्ली प्रमुख सीटों पर बसपा के उम्मीदवारों ने कांग्रेस-भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर दी है...बसपा के उम्मीदवार भी कुछ ऐसे है पहले जो कि कभी भाजपा में थे या कांग्रेस से इस बार टिकट की दावेदारी ठोकीं थी पर ताल जोर से न लगी और आवाज बसपा के कार्यालय में सुनाई देने लगी... देखना है कि इस बार के चुनावो पर कौन किसका भाई बनकर आपके पास आता है और कौन विरोधी....

संभलकर दिल्ली.