Sunday, December 6, 2009

बाबरी की बरसी...

6 दिसंबर 2009 ,रविवार के दिन मेरी छुट्टी मेरे लिए उपहार से कम ना थी, मीडिया की नौकरी में रविवार की छुट्टी लॉटरी का काम करती है ना दोस्तों? मैं सुबह की धूप का आनंद लेनें के लिए मोहल्ले के चौक पर जा रहा था तो याद आया, की कल काम पर भी जाना है, तो कपडे भी इस्त्री(प्रेस) करवानें के लिए दे दूं। कपड़े इस्त्री के लिए देनें के लिए चौक पर गया और प्रेसवाले की दुकान पर खड़ा धूप का आनंद लेनें लगा, आसपास मोहल्ले के बुजुर्ग ताश खेलनें की योजना बनाते मंडली पूरी होनें की बाट जोह रहे थे, तो नौजवान और बच्चे अपनी बातों में मशरूफ़ थे। मैं भी काफी दिनों के बाद रविवार को अपनें मोहल्ले के चौक पर आया था। काम की व्यस्त्ता के चलते मौका भी नहीं मिल पाता हर रविवार चौक पर आनें का और हफ्तेभर के किस्सों को किसी मित्र से साझा कर पानें का। बड़े दिनों के बाद किशन लाल(मेरे बचपन का मित्र) मिला और व्यंगात्मक शैली में बोला और पत्रकार साहब क्या हाल है? आज आप बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी नहीं मना रहे क्या? मुझे सुनकर बड़ा अटपटा सा लगा और मैं अपनें पुरानी दिल्ली के लहज़े में ही बोला कि"अबे क्या कह रहा है?" मेरा मित्र बोला "यार आज तो बाबरी मस्जिद विध्वंस की गई थी ना तो तुम कहीं किसी धिक्कार या सम्मान दिवस में नहीं गए क्या?" मैनें कहा कि भाई मेरी आज छुट्टी है और मैं आज काम पर नहीं गया हूं। तुम मजाक क्यों कर रहे हो...। इतनें में किशन लाल बाज़ नहीं आया और मेरे बगल से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के 30 वर्षों से कर्मठ कार्यकर्ता श्रीमानजी निकल कर जा रहे थे, तो किशन लाल बोला कि "शाखा के प्रमुख जा रहे हैं इनसे बात करते हैं, ये आज माथे पर टीका लगा कर कहां से आ रहे हैं?" मुझे चौक खड़े देख श्रीमान जी अपनें ब्रजीया लहजे़ में बोले "नमस्तेजी आज आपकी छु्ट्टी है का? मैनें कहा कि हां आज किस्मत ठीक थी, आप बताएं श्रीमानजी कहां से आ रहे है आप सुबह-सुबह तिलक-विलक माथे पर लगा कर? आज बाबरी की बरसी तो नहीं माना रहे थे कहीं? श्रीमानजी मुस्कुराए और हाथ मिलाते हुए बोले "हम का मनावैंगें बरसिअऐ, या बो तो मुस्लमान मानाऐंगे" और ज़ोर से हंस पड़े। मैं और किशन लाल एक दूसरे कि तरफ देखनें लगे। ये हम दोनों जानते थे कि हमारे मुहल्ले से 4 लोग कारसेवा के लिए अयोघ्या गऐ थे जिनमें से एक को आधे रास्ते से वापस आना पड़ा था और तीन लोग पूरा काम करके आए थे, वो तीनों थे ठाकुर साहब, मिश्राजी और श्रीमानजी । जिनमें से हरदोई के मिश्राजी तो बाबरी की ईंट भी लेकर आए थे। आज तक मिश्राजी नें अपनें मकान की एक ईंट ना लगाई है, ये सभी जानते है, कि वो आज भी अपनें परिवार से, जो कि मोहल्ले में ही मकान में रहता है उनसे अलग रहते हैं। पंडतजी सरकारी ज़मीन (जोकि मोहल्ले की चौपाल है) उसपर कब्ज़ा करके एक छोटी सी झोपड़ी बना कर अकेले रहते हैं। चुनावों के दिनों में बटनेंवाली शराब भी उन्हीं के यहां से वितरित होती है, ये सभी जानते हैं।
अब श्रीमानजी को ऐसे मौके पर हम भला कैसे जानें देते। तो हम भी लगे कुछ सवाल जाननें के लिए, कि क्या हुआ था?आप लोग कब गए थे? कैसे गए थे कैसे गिराई गई मस्जिद? कौन-कौन नेता मौजूद थे?

बातों-बातों में मैं हंसी ठिठोली करता हुआ एक-एक कर अपनें सवाल रखता गया। श्रीमानजी का जवाब सुनते-सुनते 6 दिसंबर 1992 का वो दिन मेरी आंखों के सामनें दिखाई दे रहा था। श्रीमानजी बोले कि हम यहां से तो कारसेवा के लिए गए थे। ट्रेन की टिकट भी ली थी, बाबरी मस्जिद से काफी दूर हम पैदल चलना पड़ा था, काफी तादाद में लोग आए थे। संघ के आदिवासी कल्याण समिति के लोगों को तीर कमान लेकर तैयार कर रखा था। फिर मैनें पूछा कि ऐसा क्यों? तो श्रीमानजी बोले कि संघ आदिवासी इलाकों में आदिवासी कल्याण के कार्यक्रम चलाती है जिससे कि कोई उनका धर्म परिवर्तन ना कर सके, उन आदिवासी लोगों को ये काम सौंपा गया था। जिस वक्त आडवाणीजी भाषण दे रहे थे तो एक युवक गुंबद पर चढ़ गया, उसे नीचे उतारनें के लिए आडवाणी नें माईक से ही कहा था। लेकिन लोगों के हुज़ूम ने जयश्रीराम के नारे लगानें शुरू कर दिए थे। आडवाणी की बात का ना तो भीड़ पर असर हुआ था और ना उस युवक पर, इतनें में कई और युवकों ने गुंबद पर चढ़नें की कोशिश की और वे कामयाब हो गए। आडवाणीजी और अशोक सिंघल इतनें मंच से उतर गए और वहां से पीछे हो गए। विनय कटियार और उमाभारती नारे लगानें लगे कि "राम नाम सत्त है... बाबरी मस्जिद ध्वस्त है"। आचार्य धर्मेंद(जयपुर वाले) भी वहां उस समय मौजूद थे और उन्होनें भी भाषण दिया था। विनय कटियार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि गिरा दो गुंबद। दोपहर के 12-1 बजे थे और 5 बजे तक तीनों गुंबदों को गिरा दिया गया था, और लोग मस्जिद की ईंटे घर लेकर चले गए। उसके बाद हम लोग भी वहां ले भागे औऱ उसी हुज़ूम के एक हिस्से के साथ कैसे-तैसे बिना टिकट के दिल्ली पहुंचें।
श्रीमानजी की बात पूरी होनें तक मेरे कपड़े भी इस्त्री हो चुके थे औऱ मेरे माथे नें भी अपनी रात की सलवटों को बाबरी की रिकॉडिंग से प्रेस कर लिया था। मैं अब अनमनें से चेतन अवस्था में था। श्रीमानजी नमस्तेजी कहते हुए चलते बनें। किशन लाल भी अपनें घर को चलनें से पहले बोला कि बाबरी की ईंट देखनें के लिए मिश्राजी के पास चलोगे? मैनें कहा कि नहीं फिर कभी...।इतना कह कर वो भी अपनें घर को निकल लिया।
घर आते वक्त मैं मन में सोच रहा था कि विध्वंसकारी अपनी शौर्यता के प्रमाण के लिए ईंटों को घर लेकर चले गए। वो ईंट भारत नाम के इस घर की धर्मनिरपेक्षता की नींव की ईंट थी। जो कई सालों से इस देश को कई संस्कृतियों के रेत-गारे से एकता की छत के नींचे आसरा देती थी। उसे निकाल कर इन लोगों ने अपनें घर की बुनियाद हटाकर उसमें सांप्रयादिकता और द्वेष की ऐसी घूस लगा दी है, जो 92 से आज तक इस घर को खोखला करती आ रही है। जब इस घूस को हम नहीं मारेंगे तब तक इस देश में धार्मिक वैमनस्य नाम पैदा करनें वाली ताकते सिर उठाती रहेगी। बदले की आग से नहीं उन फ़िर्कापरस्त शक्तियों के खिलाफ एकजुट होकर हमें अपनें इस घर की रक्षा करनी है।

Tuesday, November 24, 2009

खुल गया लिब्रहान का पिटारा!

खुल गया लिब्रहान का पिटारा
जिसे बचाऐ था यूपीए हमारा,
था शुभ मुहूर्त का इंतज़ार
जैसे ही बड़ी गन्नें और महंगाई की बौछार,
खोल दिया पिटारा,
जनता भूल गई सब मार...।

भूल गई सब मार, बाबा लिब्रहान आ गए,
कुछ पुरानें ज़ख्मों को कुरेद कर,
फिर दवा लगा गए...
और कौन-कौन था बेचारा?
ये एहसास करा गए...
ये एहसास करा गए औऱ,
जनता थी हैरान? कि सत्रह साल खा गए,
अब गृह मंत्रालय के पिटारे से,
बिन आदेश आ गए?
बिन आदेश आ गए…
अरे,ख़बर तो भिजवाई होती?
संघी तैयार हो जाते,
और राजनीति के पतीले में,
सांप्रदायिकता का फिर छौंका लगाते...।
पर क्या करते कांग्रेसी भी,
मौका बढ़िया जो मिला था,
एक बार फिर सदन में,
मुद्दों का दौर जो चला था।
जो घिर जाते इस बार, तो कहीं के ना रहते
कौन रहता मित्र और किसे सखा कहते?
खुद अकेले खड़े रहते सदन में,
खुद अकेले खड़े रहते सदन में...
ना वाम संग था ना दाम(महंगाई)
और क्या बताते किया जो काम?
बस बढ़ाया दाम...बस बढ़ाया दाम...।
महंगाई की ही पूछै यूपीए खैर,
बस नोटन सै दोस्ती, और जनता सै बैर...।
सूखा और किसान, भ्रष्ट और बेईमान,
सब है समान....औ फिर भी कहे यूपीए,
“मेरा पीएम महान”।
मौका बढ़िया था, ब्रह्रास्त्र छोड़नें का
धर्मनिरपेक्षता की भौंटी नोंक को,
फिर पैंना कर लो...
खुद को साफ़ रखकर, देश को मैला कर दो...।
92वें की कालिख़ में,
92वें की कालिख़ में...
कांग्रेस की कमीज़ चिट्टी निकली,
कह गए बाबा लिब्रहान 17 साल बाद,
कभी बिठाया कमीशन,
तो फिर ना दूंगा साथ...

Friday, November 20, 2009

नेहरू चाचा का बड्डे!


दिन 14 नवंबर 2009 दिल्ली, मैं रोज़ की तरह अपनें काम पर जानें के लिएअपनी मोटर साईकिल पर निकला। नई दिल्ली स्टेशन से अजमेरी गेट होते हुएमुझे आईटीओ जाना होता है। रोज़ की तरह मैं अपने तय समय पर था। तुर्क़मानगेट तक रास्ता साफ था, पर दिल्ली गेट पहुंचनें पर अचानक ट्रैफिक काफीज्यादा सा दिखनें लगा। मैंनें लाल बक्ती का जाम समझा और अपनी कलाई परबंधी घड़ी देख इंतज़ार करनें लगा। समय हुआ था 7:30(सुबह के) सोचा किधीर-धीरे ट्रैफिक आगे बढ़ेगा। मुझे दिल्ली गेट की बत्ती से दाईं ओरबहादुर शाह ज़फर मार्ग पर मुड़ना था। वही बत्ती मेरे दाईं और बनेंलोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल(ईर्विन हॉस्पिटल) जानें वालों के लिए भीमार्ग है। पर 10 मिनट से ज्यादा हो जाने पर मैंनें जानना चाहा कि क्याकारण है जो कि इस तरफ की बत्ती नहीं हरी हो रही है? दूर नज़र दौड़ाई तोदेखा कि दिल्ली गेट के चौराहे पर लाल बत्ती बंद थी और ट्रैफिक पुलिस हीट्रैफिक नियंत्रण कर रही थी। फिर चारों और एक बार फिर देखा तो हर जगह हरतरफ ख़ाकी वर्दी में भी पुलिस वाले तैनात थे। एक बार को तो सोचनें लगा किकल रात की बड़ी ख़बर क्या थी? क्या अमेरिकी आतंकवादी हैडली भारत तो नहींआ रहा आज? ख़ैर ये मेरी मन में उपजा एक व्यंग भर था। मेरे साथ में ही दोअलग-अलग मोटर साईकिल पर तीन पुलिस वाले खड़े थे, वे भी ट्रैफिक छूटनें कीबाट जोह रहे थे, मेरी तरह। मैंनें उन्हीं से पूछा कि आज कोई ईवेंट हैक्या? जवाब आया “चाचा नेहरू का बड्डे है”। मैनें पूछा, तो इस तरफ काट्रैफिक क्यों रुका है? जवाब आया “हम भी उसी के छूट्ण का इंजार कर रे सै,प्रधानमंत्री आ रे सै भाई”।मैनें कहा कि अभी तो आए थे 2 अक्तूबर को गांधी जयंती पर और 31 अक्तूबर कोभी इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर, तब भी ट्रैफिक के रूट बदले गए थे औरलोगो को काफी परेशानी हुई थी? पुलिस वाले अपने हरियाणवीं लहज़े में फिरबोले “अजी के बतावै, इन्ननैं(नेताओं को) काम के है, रोजीना किसी ना किसीका जन्मदिवस और मरण दिवस मनावै सुसरे, तड़कै तीन बजै तै पुलिस फोरसलगावै है अर सारी फोरस एक्कै काम्मा मैं ई हाजरी दे है। या बीच फ़ेर कोईक्राईम हो जावै तै म्हारी(पुलिस की) जान आफ़त मैं आवै ”। ट्रैफिक अभी भीछूटा नहीं था, मैनें बातचीत दिलचस्प होती देख अपना हेलमेट उतार दिया औरफिर कई सवाल पूछे। तो नेता लोग तो शांति वन में फूल चढ़ा चुकें होंगे अबतक, फिर क्या देरी है? जवाब आया कि “अजी वा बी तो सै आज के कै हैं…?चिल्डरन डे, बाल दिवस भी तो सै आज, अंबेडकर सटेडियम में फ़ंगसन सै,बाल्ण्क खेल तमासे करेंगे। प्रधान मंत्री जी आरे हैं।”ट्रैफिक अभी-भी नहीं छूटा था, मैनें फिर घ़ड़ी देखी 7 बजकर 45 मिनट होचुके थे। बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैनें कहा कि अपनें पीएमजी भी गज़ब हस्ती हैं, अभी उनके एक दौरे पर चंडीगढ़ में एक व्यक्ति केसमय पर अस्पताल ना पहुंच पानें के कारण मृत्यु हो गई थी, आज फिर इनकेदौरे से आम आदमी को परेशानी झेलनी पड़ रही है। (मेरा मतलब मेरे बाईं औरबनें एलएनजेपी अस्पताल (सरकारी अस्पताल) में आनें वाले मरीजों से भी था)।तो पुलिस वाले बोले “भाई के बतावै, थमनैं थारी पड़ री सै, हमनैं म्हारी,बत्ता तो दी तन्नै कि पीएम आरे हैं किसनैं पत्ता सै कि अस्पताल का मरीजहै कै आंतकवादी? सुरक्षा तो तगड़ी रखनी पडै है”। मैनें फिर झुंझलाहट मेंकहा कि ये कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के नेताओं का जन्मदिवस औरपुण्यतिथि आम लोगों के लिए हमेशा परेशानी का सबब क्यों बनती है?इतना कह मैं शांत हो सोचनें लगा, कि और भी तो प्रधानमंत्री रहे हैं भारतमें या कांग्रेस पार्टी में भी, उन नेताओं को क्यों नहीं कोई क्यों नहींयाद रखता? क्यों नहीं कोई याद रखता पीवी नरसिंह राव का जन्मदिन यापुण्यतिथि? उनकी तो समाधि भी उनके पैतृक गांव में बनाई है। तो जवाहर लालनेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की समाधि क्यों नहीं इलाहाबाद मेंबनाई गई? जो अमेठी रायबरेली सीट आज तक नेहरू-गांधी परिवार की बपौती बनींहुई है क्यों नहीं उसी जनता के बीच ही उनके प्रिय नेताओं की समाधि बनाईंजाती। जिससे कि दिंवगत नेता भावी नेताओं के प्रेरणा स्त्रोत बनते? औरशायद इससे पार्टी की यूपी ईकाई भी आज तक मज़बूत बनीं रहती। सांसद कहीं केऔर समाधि कहीं? ये फैक्टर भी शायद काम कर रहा होगा यूपी में... जिस जनताका प्यार मिला पुश्तों तक, उसी मिट्टी में समा जानें का माग्दा हर किसीमें भी नहीं होता शायद...? चौधरी चरण सिंह, मोरार जी देसाई, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर सभी भारत के प्रधानमंत्री रहे हैं, उनका जन्मदिन औरपुण्यतिथि कब होती है, शायद किसी को पता भी ना हो? इनमें से चौधरी साहबके सुपुत्र अजीत सिंह भी अपनें पिता कि समाधि दिल्ली में बनवानें मेंकामयाब रहे, ख़ैर ये शायद उनकी कोई जिद्द रही होगी! परंतु कांग्रेस केनेता और भारत के पूर्व राष्ट्रपति दिंवगत शंकर दयाल शर्मा का समाधि कहांहै पता नहीं, मैनें एक बार नाम सुना था, शायद शंकर घाट है, पर कहां है येनहीं जानता, कब जन्मदिन होता है और कब पुण्यतिथि किसी ये कांग्रेसी नेतासे पूछूंगा जरूर।अब मेरे साथ में खड़े पुलिस वाले ने मुझे आवाज दी “कै सोचण लगै भाई जी”?मैनें फिर अपनी घड़ी देखी, 8 बजकर 5 मिनट हो चुके थे। मोटर साईकिल कोस्टैंड लगा मैं आगे देखनें लगा तो मुझे सड़क पूरी तरह से बंद दिखाई दी,आगे बैरीकेट्स लगे थे। राजघाट से आनें वाले ट्रैफिक को पूरी तरह से आनेंदिया जा रहा था। नेताजी सुभाष मार्ग से बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर जानेंके लिए भी रास्ता धीरे-धीरे चालू कर दिया था। पर अजमेरी गेट से आईटीओ केलिए रास्ता अभी-भी ना खुला था। मेरे आगे खड़ी मोटर साईकिल पर बैठे एकअन्य पुलिस वाले ने समय व्यर्थ न करते हुऐ, सिगरेट निकाल कर सुलगाई औरट्रैफिक खुलनें का इंतजार करनें लगा। उसके लिए भी राहत का समय था क्योंकिवो भी अपनी ड्यूटी पर पहुंचनें की बजाए ट्रैफिक जाम का लुत्फ़ उठा रहाथा। अब मेरे सब्र का बांध भी टूट चुका था, मैं काफी लेट हो गया था। मेरेऑफिस से फोन भी आ रहे थे लेकिन मैनें कोई भी फोन नहीं उठाया। मुझे डर लगाकि सुरक्षा के इंतज़ाम इतनें पुख़्ता हैं, कहीं कोई ड्राईविंग करते समयमोबाईल के प्रयोग की धारा के तहत ट्रैफिक के उल्लंघन का चलान ना घर भेजदे! ख़ैर आखिरकार 8 बजकर 15 मिनट पर सड़क खड़े बैरिकैट्स हटाए गए,रस्सियां भी खोल दी गई। धीरे-धीरे ट्रैफिक सरकनें लगा। मैंनें मोटरसाईकिल स्टार्ट की और चल दिया। ऑफिस पहुंचा तो अपनें सहकर्मी से पूछा किबॉस आ गए क्या? जवाब आया कि “बॉस भी अभी नहीं आए”। मेरी जान में जान आई,मैं बोला कि वो भी शायद मेरी तरह चाचा नेहरू के जन्मदिवस में अप्रत्यक्षरूप से शामिल हो रहे होंगें। इतनें में मेरे सहकर्मी नें बताया कि “अभीक्यों डरते हो, अभी तो 19 नवंबर को इंदिरा गांधी की जयंती भी है”। अब आगेमेरे पास तो कहनें को कुछ नहीं है, आप स्वंय समझदार है।

Saturday, November 7, 2009

पत्रकारिता के युग का अंत


अम्बरीश कुमार


जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे .जनसत्ता जिसने हिंदी पत्रकारिता की भाषा बदली तेवर बदला और अंग्रेजी पत्रकारिता के बराबर खडा कर दिया .उसी जनसत्ता को बनाने वाले प्रभाष जोशी का कल देर रात निधन हो गया । दिल्ली से सटे वसुंधरा इलाके की जनसत्ता सोसाईटी में रहने वाले प्रभाष जोशी कल भारत और अस्ट्रेलिया मैच देख रहे थे । मैच के दौरान ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । परिवार वाले उन्हें रात करीब 11.30 बजे गाजियावाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल ले गए , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । प्रभाष जोशी की मौत की खबर पत्रकारिता जगत के लिए इतनी बड़ी घटना थी कि रात भर पत्रकारों के फोन घनघनाते रहे । उनकी मौत के बाद पहले उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया फिर एम्स । इंदौर में उनका अंतिम संस्कार किया जाना तय हुआ है , इसलिए आज देर शाम उनका शरीर इंदौर ले जाया जाएगा ।प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे।मालवा प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थीऔर जनसत्ता में देशज भाषा का नया प्रयोग भी उन्होंने किया । पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने अमदाबाद और चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की भाषा और तेवर बदल दिया ।जनसत्ता सिर्फ अखबार नहीं बना बल्कि ९० के दशक का धारदार राजनैतिक हथियार भी बना। पहली बार किसी संपादक की चौखट पर दिग्गज नेताओ को इन्तजार करते देखा। यह ताकत हिंदी मीडिया को प्रभाष जोशी ने दी ,वह हिंदी मीडिया जो पहले याचक मुद्रा में खडा रहता था । इसे कैसा संयोग कहेंगे की ठीक एक दिन पहले लखनऊ में उन्होंने हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा .इंडियन एक्सप्रेस से उनका सम्बन्ध कैसा था इसी से पता चल जाता है . प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे .आज यानी छह नवम्बर को तडके ढाई बजे दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे .मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कर्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे .मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अम्बरीश कुमार कहा है .यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है .प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मे खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा .कुछ देर में प्रभाष जी दफ्तर आ गये .दफ्तर पहली मंजिल पर है फिर भी वे आये .करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गाँधी आदि के बारे में बात कर पुराणी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,दीपा आदि भी मौजूद थी .तभी प्रभाष जी ने कहा .वाराणसी से यहाँ आ रहा हूँ कल मणिपुर जाना है पर यार दिल्ली में पहले डाक्टर से पूरा चेकउप कराना है.दरअसल वाराणसी में कार्यक्रम से पहले मुझे चक्कर आ गया था .प्रभाष जोशी की यह बात हम लोगो ने सामान्य ढंग से ली .पुरानी याद तजा करते हुए मुझे यह भी याद आया की १९८८ में चेन्नई से रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से मिलने को भेजा था तब मे बंगलोर के एक अखबार में था ..पर जब प्रभाष जोशी से मिलने इंडियन एक्सप्रेस के बहादुर शाह जफ़र रोड वाले दफ्तर गया तो वहां काफी देर बाद उनके पीए से मिल पाया .उनके पीए यानि राम बाबु को मैंने बतया की रामनाथ गोयनका ने भेजा है तो उन्होंने प्रभाष जी से बात की .बाद बे जवाब मिला -प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का समय नहीं है ..ख़ैर कहानी लम्बी है पर वही प्रभाष जोशी बुधवार को मुझे देखने दफ्तर आये और गुरूवार को हम सभी को छोड़ गए .लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस की सहयोगियों से मैंने उनका परिचय कराया तभी मौलश्री की तरफ मुखातिब हो प्रभाष जोशी ने कहा था -मेरा घर तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार में ही है .हम सब कुछ समझ नहीं पाए .उसी समय भोपाल से भास्कर के पत्रकार हिमांशु वाजपई का फोन आया तो हमने कहा-प्रभाष जी से बात कर रहा हु कुछ देर बात फोन करना . काफी देर तक बात होती रही पर आज उनके जाने की खबर सुनकर कुछ समझ नहीं आ रहा .भारतीय पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह को हम कभी भूल नहीं सकते .मेरे वे संपादक ही नहीं अभिभावक भी थे..यहाँ से जाते बोले -अपनी सेहत का ख्याल रखो .बहुत कुछ करना है.प्रभाष जी से जो अंतिम बातचीत हुईं उसे हम जल्द देंगे .प्रभाष जोशी का जाना पत्रकारिता के एक युग का अंत है .

Sunday, October 25, 2009

गांधी "बाबा" का बड्डे!


गांधी बाबा ने बनाया,
दलितों को "हरिजन"
कांग्रेस बना रही है,
उन्हें अपना "परिजन"
दलितों में पार्टी की हालत खराब है।
अब ना बचा कोई,

जगजीवन राम सा मुखौटा,
तभी राहुल बाबा ने,
उठा लिया लाठी-लौटा।
चल पड़ते है हॉलीडे पर मन-मर्जी
आप असल समझे या फ़र्जी
ये है आपकी मर्जी...

ये है आपकी मर्जी।
राहुल बाबा तो जाऐेगें ही
नाना जी की भारत एक खोज का,
पार्ट टू जो बनना है,
कांग्रेस का दलित प्रेम जो दिखाना है।
ये देख सोचने लगे सारे नंबर बनाऊ,

एक दिन का फ्री स्टे मैं भी कर आऊं?
"पर का करैंगे अछूतन के घर को खा कै
सौनों का है अछूतन के घर
रोटी खवा दो बौहत हैगो"।
2 अक्टूबर है बढ़़िया दिन
सारे "गांधीन" को खुश करबै को।
हरिजन से है राहुल बाबा को प्यार
आज उन्हें भी गोश्त खिला दो
गांधी जी का बड्डे बता दो।
चलो-चलो आज फिर,
दलित "हरिजन" हो गए,

बहन जी के बहुजन जो सर्वजन हो गए।
बहनजी के बड़्डे में,
बुलाया नहीं किसी नें
"गांधी बाबा" तो उन्हीं के है सदा से
कल वाले भी और आज वाले भी।
ये सोच चल पड़े नेता तन
संग ले चले अपनी पंखा-पलटन
का पता था कि,
जो माल ले कै जाएंगे
सारा चमचै ही चट कर जाएंगे,
दलित फिर हरिजन रह जाएंगे।

जो करेंगे हरि करेंगे

हरि भरोसे छोड़ दो इन्हें

हरि के जन रहे हरि भरोसे,

यही तो कहा था गांधी बाबा ने।

Thursday, September 17, 2009

आई-आई आरूषि आई...


कहावत सुनी होगी की राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट, वास्तविक परिदृश्य में आरूषि नाम की सेल फिर खुली है...


आई-आई आरुषि आई... डिस्काऊंट है भाई, डिस्काऊंट है भाई...


नोएडा से खुर्जा, बना कल-पुर्ज़ा, खूब सजाओं रनडाऊन में,


क्या रखा है ख़बर फाऊंड में...


आई-आई आरूषि आई...


शिफ्ट इंचार्ज की बला टली, कहां से लाएं वापस खली,


शुक्र है कि मोबाईल मिल गया, प्रड्यूसरों का चेहरा खिल गया,


आई-आई आरूषि आई...


खूब चैप्टर प्लेट लगाओं, कोइ नया जासूस बुलाओ,


कोई जाकर स्टिंग कटवाओं, एक बढ़िया प्रोमों बनाओं,


आई-आई आरूषि आई...


एक ओबी वहां लगाओ, एक ओबी यहां लगाओ,


सारी ओबी जल्दी बुलाओ,


आई-आई आरूषि आई... कोई ब्रेकिंग की पट्टी चलाओ, कोई जाकर हाथ छपाओं,


कोई जाकर नौकरानी को लाओ, कोई जाकर बाईट ले आओ...


आई-आई आरूषि आई...


बहुत काम है क्या करते हो?, जल्दी लाओ कोई बड़ा सैटर,


टीआरपी का है ये मैटर,


आई-आई आरुषि आई...

Friday, September 11, 2009

मेडिकल की पढ़ाई, जाति की दुहाई...!


मेडिकल के छात्र भी अछूते नहीं है जातिवाद से और किसी की क्या कहें... वाह रे मेरा देश! बिहार के मेडिकल कॉलेज में 8 अलग-अलग जातियों के लिए अलग से मैस/ कैंटीन है। भूमिहार के लिए अलग मैस, ठाकुरों के अलग मैस, कु्र्मी छात्रों की अलग मैस, ब्राह्मणों को तो छूट कहीं भी खा सकते हैं मर्जी हो तो, वैसे वो केवल सवर्णों में ही खाना पसंद करते है। देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी न्यूज़ चैनल सीएनएन-आईबीएन नें 10 सितंबर 2009 की सुबह 9 बजकर 36 मिनट पर खबर दिखाई की मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण चिकित्सा महाविद्यालय अस्पताल में मेडिकल की पढ़ाई करनें वाले जूनियर और सीनियर डॉक्टर आज भी नीची जाति के अपनें सहपाठियों के साथ खाना नहीं खाते। यहां तक की छात्रों नें जाति आधारित अपनें लिए अलग से मैस/ कैन्टीन भी बनाए हैं। जिसमें केवल उस जाति विशेष के लिए खाना बनता है। मेडिकल कॉलेज का जो मैस है, उसमें केवल जूनियर औऱ सीनियर डॉक्टर ही खाना खाते हैं वो भी सवर्ण वर्ग के । इस बात की पुष्टि करते हुए मेडिकल कॉलेज के एक छात्र नें गौरवांवित होते हुए कहा कि "हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि हमारे मेडिकल कॉलेज में जाति आधारित मैस है औऱ वो छात्रों द्वारा ही संचालित किए जाते हैं इसमें कॉलेज प्रशासन का कोई हाथ नहीं है"। एक अन्य छात्र का कहना था कि "यही हाल पूरे बिहार के मेडिकल कॉलेजों का है"। अब सवाल ये उठता है कि क्या जातिवाद के खत्म होनें की बात करनें वाले हमारे तथाकथित पत्रकारों, साहित्यकार औऱ लेखक मित्रों को जो ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लवादी हमलों और महाराष्ट्र में बिहार के लोगों के साथ होनें वाले कृत्यों की सिरे से भर्त्सना करते हैं उन्होनें इस विषय पर क्यों चुप्पी साध रखी हैं? गौतम बुद्ध की बिहार भूमि से ताल्लुक रखनें वाले हमारे मित्र क्या इसे छूआछूत नहीं मानतें? क्यों हमारे पूरे देश के लोगों को ये आदत हो गई है कि दूसरे के घर में गंदगी ज्यादा नज़र आती है? अपनें को हमेशा हम सही मानतें है। जब ये हाल समाज के सबसे प्रतिष्ठित काम करनें की शिक्षा ग्रहण करनें वालों का है, तो औरों को क्या सबक देंगें हम। थोड़े दिन पहले मेरे एक पत्रकर मित्र नें अपनें ब्लॉग से दिलीप मंडल के ब्लॉग रिजेक्टमाल का लेख भेजा। जिसमें की दिलीप मंडल दो पत्रकारों को ये ज्ञान दे रहे थे कि 21वीं सदीं में कोई किसी की जाति नहीं पूछता और हर बार आधुनिकता की दुहाई दे रहे थे। क्या हमारे समाज का ये आईना हमारे बुद्धिजीवियों को दिखाई नहीं देता। ये (मेडिकल के छात्र) हमारे समाज का सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा तबका है जो कि कल डॉक्टर बन के लोगों की सेवा करनें की शपथ लेगें बिना किसी भेदभाव के। विदेशों से आई इस शिक्षा (मेडिकल) में शायद जब ये शपथ बनाई गई होगी तो विदेशों में उस समय काले-गोरों और अलग धर्मों का संघर्ष रहा था, ऐसे में जान बचानें वाले इस पेशें में केवल एक बात सिखाई जाती की इंसानियत से बड़ा कोई धर्म कोई जाति नहीं। लोग मिसाल देते की डॉक्टर भगवान का रूप है। क्यों क्योंकि उसके लिए सब एक समान है, कोई भेद नहीं किसी से भी, सभी को स्वस्थ रखनें की जिम्मेदारी उनकी( डॉक्टरों) की है, वो प्राणदाता है। लेकिन मुज़फ़्फरपुर के इस मेडिकल कॉलेज नें और साथ-साथ बिहार के सभी मेडिकल कॉलेजों नें शायद इस सेवा को जाति के तराज़ू में तोल ही दिया। ये सच्चाई है कि बिहार में आज भी लोग किस प्रकार जाति के आधार पर बटें है कि नाम से पहचाननें की कोशिश करते हैं कि फलां व्यक्ति किस जाति का है। यदि उसके नाम के पीछे कुमार लिखा हो तो सवाल ज्यादा परेशान करता है। मैनें ऐसा अनुभव अपनें स्टार न्यूज़ में काम करनें के दौरान लिया था। तब सोचा कि फर्जी हलवाई की दुकानों पर ज्ञान बघारनें वालों की ये सोच होगी शायद जो कि अब चैनलों में बैठ ज्ञान बघार रहे हैं और आज भी खुद को ठाकुर पंडित कहलवानें में गौरवांवित होते हैं। लेकिन ये हाल तो मेडिकल जैसे सेवा क्षेत्र का है भी है। कैसे डॉक्टर होंगे वो जो कि केवल अपनीं ही जाति के लोगों का इलाज करेंगे? कैसे आईएएस होंगे वो जो केवल बिहार कॉडर के लिए सीविल सर्विसि्स का पेपर पास करे? ऐसा तो नहीं होना चाहिए लेकिन क्या होना चाहिए औऱ क्या नहीं इन शब्दों का मतलब केवल मुंबई दिल्ली जैसे शहरों के लिए ही मान्य रह जाता है। बिहार के लिए शायद नहीं ! क्या पुलिस नें किया, क्या लोगों नें किया, क्या होना चाहिए था, क्यों होना चाहिए था, सारे सवाल जवाब सारे कागद कारे, सारे संपादकीय, सारी स्पेशल रिपोर्ट औऱ सारे न्यूज़ पोईंट केवल दिल्ली-मुंबई और आस्ट्रेलिया तक सिमट कर रह जाते हैं और अपनें घर की घर की गंदगी किसी को भी नज़र नहीं आती। वाह रे मेरे देस के गुणवानों...लगे रहो!

Thursday, September 3, 2009

डॉक्टरी आला छोड़ कूद पड़ा मैदान में...


भारतीय राजनीति के वास्तविक परिदृश्य पर यदि सरसरी नज़र डाले तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी जैसे नेता बहुत कम नज़र आते है। बात चाहे किसी भी पार्टी की हो या केवल कांग्रेस की, उनके मुकाबले का ज़मीनी नेता तो शायद कांग्रेस में भी नहीं है । 28 साल की उम्र में डॉक्टरी जैसे पेशे को छोड़कर क्यों करके राजनीति में आना वो भी मुख्यधारा की राजनीति में। किसी राज्य विशेष से राज्य सभा के सदस्य के रूप में नहीं, बल्कि ज़मीनी संघर्ष के दम पर अपनें राजनीतिक जीवन के यौवन से, परिपक्व राजनीति की धूरी बननें तक के सफ़र को अंजाम देनें की ओर अग्रसर रहे राजशेखर रेड्डी। आंध्र प्रदेश में एनटीआर के बाद उनकी राजनीतिक विरासत को संभालनें के लिए उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने बनीं बनाई सत्ता का स्वाद चखा। एनटीआर का कोई राजनीतिक वारिस (पुत्र) ना होनें का लाभ उन्हें मिला और एनटीआर की दो पत्नियों के होनें की वजह के बावजूद उन्हें एनटीआर का राजनीतिक वारिस माना गया और जनता की स्वीकृति मिली। आंध्र की राजनीति पर यदि एक निगाह डालें तो हम देखते हैं कि जो विश्वास लोगों को सिनेमा घर तक खींचता है, वही विश्वास राजनीति में, उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा को भी पूरा करनें में सफल होता है। आंध्र प्रदेश की जनता चाहे शहरों की हो या गांवों कस्बों की वो नेता और अभिनेता में खासा अंतर कर पानें में शायद उतनी सफल नहीं हो पाई थी जितनी की उत्तर-भारत की जनता रहती है। इस माहौल में आंध्र प्रदेश जैसे राज्य के लोगों की ज़मीनी हक़ीक़त को जाननें के लिए वाई एस राजशेखर रेड्डी नें उनसे सीधे संपर्क करनें के लिए 1400 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके एनटीआर जैसे नेता कि राजनीतिक विरासत संभाल रहे चंद्रबाबू की गद्दी को उखाड़ दिया। राजशेखर रेड्डी को लोगों ने सन् 2004 में राज्य की सत्ता के शिखर बैठ ये साबित कर दिया था कि राजनीति केवल भाषण देनें भर से या किसी नेता की कुर्सी पर उसके उत्राधिकारी के बैठ जानें भर से नहीं की जाती। जनता का भला करनें के लिए जनता से सीधे संपर्क करना पड़ता है। राजशेखर रेड्डी वास्तिक राजनीति में एक उदाहरण के रूप में साबित हुए। बिना किसी धर्म के पैरोकार बन, बिना कोई रथ लिए, बिना किसी जाति या संप्रदाय की लाठी थामें। बस जनता के लिए जनता की आवाज बनकर निकले थे औऱ पा गए उनका विश्वास। ऐसा नहीं है कि सत्ता पानें के बाद राजशेखर रेड्डी ने जनता से किए अपनें वादों से फिर गए हो या केवल घोषणाओं के अंबार भर से काम चलाया। राजशेखर रेड्डी ने मुख्यमंत्री रहते हुए भी जनता के बीच जाना नहीं छोड़ा और अपनी सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को लागू करवानें के लिए या उनके लागू होनें से संबंधित लोगों (विधायकों, नौकरशाहों) से संपर्क साधनें में भी वे पीछे नहीं रहते थे। जनता तक उनकी योजनाओं के पहुंचनें तक की सारी कार्यप्रणाली का जायज़ा राजशेखर रेड्डी स्वंय लिया करते थे। और इसी कारण आंध्र प्रदेश की जनता नें राजशेखर रेडडी को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाया और उनके कार्यों से प्रभावित होकर ही कांग्रेस को लोकसभा के चुनावों में भारी जीत भी दिलवाई। क्या किसान, क्या मज़दूर क्या मध्यम वर्गीय लोग सभी के नेता के रूप में पहचान बनाई राजशेखर रेड्डी नें। हमें ये कहनें भी ज़रा भी हिचक महसूस नहीं होनी चाहिए की राजशेखर रेड्डी का नाम कांग्रेस से बढ़कर था आंध्र प्रदेश की जनता के लिए। आज देश को ऐसे ज़मीनी नेताओं की बहुत अधिक आश्यकता है। अपनी इसी कार्यप्रणाली के चलते वे कभी ठहरते नहीं थे। ख़राब मौसम हो या कोई आपदा राजशेखर रेड्डी की दिनचर्या के हिस्से मं था कि किसी भी योजना के क्रियांवन से संबंधित जानकारी लेनें के लिेए वे स्वंय जाते। एक नेता का क्या काम है औऱ कैसे राजनीति में आप लंबे समय तक कायम रह सकते हैं ये राजशेखर नें साबित किया था। केवल अपनें कार्यों और जनता से सीधे संपर्क के माध्यम से। औऱ अपनें इन्हीं कार्यों के चलते वे 2 सितंबर 2009 को अपनें नियमित दौर पर जा रहे थे कि हैलीकॉप्टर दु्र्घटना में उनका निधन हो गया। हालांकि उन्हें ख़राब मौसम के चलते अपना दौरा रद्द करनें की भी सलाह दी गई थी लेकिन वे अपनें दौरों को किसी भी हालत में रद्द नहीं करना चाहते थे। भारतीय राजनीति के लिए और देश में ज़मीनी सोच रखनें वाले लोगों के लिए वाई.एस.राजशेखर रेड्डी का जाना बहुत बड़ी क्षति है। हमारे देश में आज ऐसे कितनें नेता होंगें जो की बिना किसी राजनीतिक विरासत संभाले अपनें को केवल अपनें औऱ जनता के दम पर ही नेता साबित करते है और अपनी कथनी औऱ करनी में अंतर नहीं करते?
एक बार आंध्र प्रदेश विधान सभा में वाईएसआर नें चंद्रबाबू नायडू से कहा था कि मैं 60 वर्ष की आयु के बाद मैं राजनीति से सन्यास ले लूंगा, और उम्र के 60वें साल में वे जिंदगी से संयास ले गए। वाई.एस.राजशेखर रेड्डी का जाना भारतीय राजनीति के लिए बहुत बड़ी क्षति है...

Tuesday, August 18, 2009

क्या ट्रेन देती है रोटी?

बिहार की राजधानी पटना के निकट बिहटा में छात्रों नें श्रमजीवी एक्सप्रेस की एसी बोगियों को आग लगा दी। ऐसी खबर मिल रही थी टेलीविजन चैनलों के हवाले से। ज्यादा अपडेट के लिए इंटरनेट पर सर्च किया तो पता चला कि पत्रिका डॉट कॉम का कहना है कि दो ट्रेनों श्रमजीवी एक्सप्रेस और संघमित्रा एक्सप्रेस दोनों की मिलाकर 11 बोगियों को आग के हवाले किया गया है। खैर कितनी बोगियों और ट्रेनों को जलाया गया है ये शायद बाद में पता चलेगा, लेकिन आज(घटना के दिन) अभी तक तो ये ही तथ्य निकल रहे हैं। इस मामले के बारे में ये भी कहा जा रहा है कि श्रमजीवी एक्सप्रेस के एसी कोच में सफर कर रहे छात्रों से जब आरपीएफ के जवानों ने टिकट मांगा तो छात्रों और आरपीएफ के जवानों के बीच कुछ तनातनी हुई। बात आगे बढ़ी तो छात्रों को शांत करनें के लिए आरपीएफ के जवानों ने उन्हें खदेड़नें के लिए लाठी चार्ज किया, जिस पर छात्रों के विरोध ने बड़ा रूप ले लिया जिसके जवाब में आरपीएफ के जवानों को फायरिंग करनी पड़ी जिसमें एक छात्र की मौत हो गई। इसके बाद छात्रों नें ट्रेन जलाई।
दोस्तों तो कुछ ऐसे ये मामला प्रथम दृश्ट्या में सामनें आता है। दोस्तों ममता बैनर्जी के रेल मंत्री बननें के बाद ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि बिहार में ट्रेन जलाई गई हो या ट्रेनों को रोका गया हो। मामला चाहे स्टेशन खत्म करनें का हो या ट्रेनों के रूट बदलनें का, बिहार के लोगों को शायद बिहार में बाढ़, सूखा, बेरोजगारी, पलायन, कुपोषण, जातीय शोषण आदि से बड़ी समस्या रेलवे नज़र आती है। ट्रेनों को लेकर जितनें संजीदा हमारे बिहारी नौजवान है, उतनें शायद किसी और राज्य के नहीं? रेल मंत्रालय मिले तो बिहार को मिले? रेल के रूट बिहार से होकर जाए? ये सोच किसने दी? क्या और समस्या नहीं है मेरे बिहार में? क्या बिहार देश के किसी अन्य राज्य को कोई ऐसी सामग्री भेजता हैं जिससे कि राज्य के किसान या नागरिको की गुज़र बसर चलती हो? क्यों हर बार बलवा रेलवे को लेकर ही होता है? कई बड़े अखबारों के संपादकीय में मैनें बिहार से सरोकार रखनें वाले पत्रकारों, साहित्यकारों, जिनकी कर्मभूमि दिल्ली ही रही होगी, उन्हें दिल्ली की बुराई करते हमेशा देखता हूं। दिल्ली के लोगों के बारे यहां कि संस्कृति,लोगों के आचरण, सभी पर खुलकर बात करते हैं। बेबांकी से कहते हैं कि दिल्ली के लोग साले किसी की मदद नहीं करना जानते। कोई अपनें कोलकाता के दौरे का प्रसंग बताता है, तो कोई अपनें डीटीसी बस में किसी व्यक्ति द्वारा केवल सही पता बतानें पर इस बात से गौरवांवित हो जाते हैं कि वो व्यक्ति बिहार का था, "साल कोई दिल्ली का होता तो हमें गलत पता बता देता"। फिर मुझे 23 जुलाई 2009 को पटना में 22 वर्षीय महिला के सरे आम कपड़े उतरावानें की घटना याद आती है तो उससे संबंधित लेखों को खंगालनें की कोशिश करता हूं, ब्लॉग के मुहल्लों और कस्बों की गलियों से भी गुजरता हूं। लेकिन हर जगह बड़े शहरो औऱ वहां की संस्कृति, वहां के लोगों के व्यवहार और बड़े शहरो(विशेष तौर पर दिल्ली) की लड़कियों के चरित्र का तो केवल कपड़े पहननें भर से उल्लेख ही मिल जाता हैं उन्हें। लेकिन, कभी मेरे इन दोस्तों नें इस बारे में सोचा है कि क्या कारण है कि लोकतंत्र के चारों स्तंभों संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता में हमारे इसी राज्य(बिहार) के लोगों की भरपूर है, बल्कि यूं कहें की अन्य राज्यों से ज्यादा भागीदारी है। नेतागिरी की तो बात ही क्या 40 लोकसभा में सीट हैं और 4000 नेता दावेदार और सभी सक्षम। आई.ए.एस बननें वालों और बनानें वालों में भी कोई मुकाबला नहीं है। न्यायपालिका एक स्वत्रंत इकाई है इस पर मैं टिप्पणी नहीं करुंगा, इसमें भी उपस्थिति बतानें की जरूरत नहीं। अब आता है लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता, इसके बारे में तो मेरे पत्रकार मित्रों को कुछ बताना मेरे लिए छोटा मुंह और बड़ी बात होगी। क्योंकि मुझे भी किसी राज्य विशेष से जोड़कर देखेंगें। पत्रकारिता में कितनें मित्र बिहारी हैं इसकी यदि पड़ताल की जाए तो शायद बिहार की इसमें भी बाजी मार लेगा। अब सवाल ये उठता हैं कि मरे देश के जिस राज्य की उपस्थिति लोकतंत्र के चारों स्तंभ में अग्रणी हो उसी राज्य से काम की तलाश में होनें वाला पलायन सबसे ज्यादा हो ? क्या मेरे उस राज्य के पास अपनें नागरिकों को खिलानें के लिए दो जून की रोटी भी नहीं? क्या मेरे उस राज्य के तंत्र में केवल सूर्य ग्रहण को देखनें भर के लिए सारी सुविधा देनें का प्रावधान है? या केवल छठ पूजा के लिए नहानें का प्रबंध कर देनेभर के लिए लोग वोट डालते हैं? क्या मेरे उस राज्य की जनता केवल इसलिए वोट डालती है कि कोई नेता इसी राज्य का फिर से रेल मंत्री बनेगा और हमारे लिए अन्य राज्यों के बड़े शहरों के लिए गाड़ी चला देगा? दरअसल शायद बिहार के नेताओं की ये सोच बनी हुई है कि यदि हम राज्य में हुए तो केंद्र को दोष देंगे और यदि केंद्र में हुए तो रेल मंत्रालय मांग कर रेल गाडी चला देंगे। जिससे ये होगा कि कल को यदि हम केंद्र में न रहे तो क्या राज्य के लोगों को अपनें द्वारा चलाई गई गाड़ियों में बिठा कर कह देंगे कि देखों न हमनें जो काम किया है वो कहां कोई कर पाता। यहां कुछ नहीं है, हमसे कुछ नहीं मांगिऐं, केंद्र ने कुछ नहीं दिया है, सूखा है, बाढ़ आ गई है सब बर्बाद हो गया है और मेरे इस राज्य की गरीब जनता फिर बड़े शहरो की और रोजी-रोटी के लिए जाती हैं और किसी राज ठाकरे, बाल ठाकरे या उल्फा का शिकार बनती है। जो राज्य देश के विकास में इतनी अहम भूमिका अदा करता है, जो राज्य ने देश को चलानें के चारों पहियों को सबसे ज्यादा मजबूती प्रदान करता है उसी राज्य को क्यों ये सब कुछ झेलना पड़े ? इस सवाल शायद मेरे पत्रकार, साहित्यकार, विचारक और बुद्धिजीवी मित्र सोचे और इस पर एक बड़ी बहस खड़ी करे और राज्य-केंद्र सरकार से जवाब मांगे? राज्य के नेताओं से जवाब मांगे जो कि अन्य राज्य के लिए केवल ट्रेन भर चलवा कर नागरिकों को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। ताकि वो अपनी दुकानदारी जमा सके और मेरे राज्य के गरीब नागरिक किसी और राज्य में जाकर किसी राज ठाकरे या बाल ठाकरे के हाथों पिटाई खाऐ और बिहार के नेताजी अपनी बाईटों में बिहारियों के हित की बात करते हैं। हमारे पत्रकार मित्र अखबारों के संपादकीय में, न्यूज़ चैनलों की स्पेशल रिपोर्टों में और ब्लागों के कस्बों, मुहल्लों और गलियारों में फिर किसी बड़े शहर के नागरिको का चरित्र -चित्रण करें। मेरे पत्रकार मित्रों को बीस-बीस साल किसी बड़े शहर में काम करते हो जाते हैं, अपनें जीवन के महत्वपूर्ण दिनों को संजों कर वो किसी बड़े शहर में कमाते हैं और अपनें बिहार को केवल छठ मईय्या के बुलावे पर चले जाते हैं और आजकल तो वो भी वही मनानें लग गए हैं। रोटी-रोजगार, तीज-त्यौहार सबही तो कर लेईबे, बढ़िया गाड़ी, मकान सब कुछ दिए रहिन ई शहर, घर अब काहे जाईबै? काहे कलम घिसत हो भाई लोग? गर कुछ करनें का जज़्बा हो तो बड़े शहरों के लोगों का चरित्र-चित्रण करना बंद करों और इन सभी बातों पर गौर करो। सड़के बना देनें भर को विकास मान लेना और बिहार को ब्रांड बननें के रूप में महिमा मंडित करने भर से समस्या हल नहीं होगी। अगर हम ढ़ूंढ़ेंगे तो इतनी समस्या मिलेगी की लोकतंत्र के चारों स्तंभों में बिहार की इतनी बड़ी भागीदारी पर शर्म आ जाएगी।



नवीन कुमार “रणवीर”
Ranvir1singh@gmail.com

Friday, July 24, 2009

पंचायती फरमानों की जरूरत !

झज्जर जिले के ढ़राना गांव के रविंद्र ने कादियान गोत्र की शिल्पा से चार महीनें पहले शादी की थी, शादी के बाद वो शिल्पा को लेकर दिल्ली चला गया था। रविंद्र का गोत्र गहलोत है लेकिन जिस पुश्तैनी गांव में रविंद्र के माता-पिता रहते है उस गांव में कादियान गोत्र के लोगों की संख्या ज्यादा है। है तो दोनों ही जाट समुदाय के, लेकिन विवाद गोत्र को लेकर ये हुआ जब रविंद्र अपनी पत्नी शिल्पा को लेकर गांव गया। बवाल ये हुआ की बारह गांवों की खाब पंचायत जो कि कादियान गोत्र की थी, उसनें फरमान जारी किया की ये लड़की शिल्पा जो कि रविंद्र की पत्नी है वो इसकी पत्नी नहीं हो सकती क्यों कि जिस कादियान गोत्र कि ये लड़की है वो इस गांव का गोत्र है(यानि की बहुसंख्य में लोग कादियान गोत्र के हैं) गांव के गोत्र की लड़की गांव के लड़के से शादी नहीं कर सकती वो उसकी बहन लगेगी। इस गांव(ढराना) के लोग शिल्पा को बहु या भाभी नहीं स्वीकार कर सकते वो उनकी बेटी है और बेटी अपनें ही भाई से नहीं ब्याही जाती।

सवाल है जब शादी होती है तो कुछ गोत्र बचानें होते हैं ये हरियाणा और राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होता है जहां तक मैं जानता हूं, मां का गोत्र खुद का गोत्र और दादी का गोत्र ये तीन गोत्र विशेष तौर बाधा उत्पन्न करते हैं शादी-विवाह में। गांव के गोत्र कभी जब मायनें रखा करते थे जब कभी एक गांव में एक ही परिवार रहा करता था तो इसलिए समय के साथ-साथ वो बढ़ता जाता औऱ उस गांव में उनकी संख्या बढ़ जाती पूरा गांव एक गोत्र का कहलाया जाता। लेकिन आज के परिवेश में रोजी-रोटी के लिए आदमी को भटकना पड़ता है कभी कौन गांव,कभी कौन शहर, सालों बीत जाते हैं एक गांव में रहते औऱ कमाते खाते दो-तीन गोत्र और आ जाते हैं उसी गांव में कमानें के लिए या तो जमीन खरीद लेते है या मज़दूरी करते हैं। फिर कौन गांव से आए थे कौन से नहीं बस यही याद करनें के लिए रोटी खानें को मिली जमीन को खोना थोड़े है। जिंदगी चलती रहती है। अब शादी करने के लिए यदि गांवों के गोत्र को बचानें लगे तो मिल जाएगी शादी के लिए लड़की या लड़का। यहीं कारण है कि शादी के लिए हरियाणा में शादी के लिए लड़की मिलना मुश्किल हो जाती है। एक तो कन्या भ्रूणहत्या के मामले में अव्वल है हरियाणा और नारी के शोषण की खबर तो आपको जब मिलेगी जब वो घर से बाहर निकलेगी आज भी हरियाणा में लड़की को हिंदू धर्म में सबसे ज्यादा तुगलकी फरमानों से गुजराना पड़ता है। मर्द बैठे हुक्का गुडगुडाएंगें और उनकी औरतें(पत्नियां) खेत में जाएंगी काम करेंगी, सुबह 4 बजे से पहले उठ कर पशुओं को सानी करेगी(चारा बनाना) दूध निकालेगी, घर का काम अलग करेंगी। शादी के लिए लड़कियों का मिलना कितना मुश्किल वैसे ही हो जाता है हरियाणा के युवकों के लिए उपर से पंचायत ऐसे फरमान जारी करती है जिससे कि जिस बेचारे कि शादी हुई हो वो भी टूट जाऐ। अब शादी के लिए कितनें गोत्र बचाए जाते हैं ये आपको जरा बता दिया जाऐ...पहला गोत्र लड़के या लड़की का, मां का गोत्र, दादी का गोत्र, बड़ी मां का गोत्र(ताई के गोत्र का लड़का या लड़की ना हो) चाची का गोत्र(सामनें ना हो) गांव का गोत्र ये सभी गोत्र आपको एक जाति में शादी करनें के लिए बचानें है। अब ऐसे में पंचायत किसे बताएगी की इससे शादी करे। औऱ फिर राज्य की भी बात आ जाती है रहने सहन का तरीका, भाई हरियाणा में ही नहीं दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भी जाट समुदाय के लोग रहते उनमें भी हेर-फेर करना होता है। तो कहां करेंगे शादी औऱ कहां न करें? खैर हमारे देश का संविधान तो हमें इजाज़त नहीं देता इन सभी गोत्रों को मिलानें की या धर्म के आधार पर या जाति के आधार पर लेकिन समाज में पंचायत व्यवस्था इंसान अपनी सहुलियत के लिए बनाता है, ताकि उसके अपनें स्वयं के या आसपास के लोगों के बीच वैमनस्य न रहे और समरसता बनी रहे। लेकिन यदि ऐेसे फरमान ही लगती रही पंचायते तो कोई क्यों मानेंगा इन पंचायतों को कोई क्यों गांवों में रहेगा और कोई क्यों कहेगा "मेरा हरियाणा... जहां है दूध-दही का खाणा"।

Wednesday, July 15, 2009

कौमार्य की अग्निपरीक्षा!

मध्य प्रदेश का शहडोल जिला आजकल सुर्खियों में हैं, क्यों है? शायद आप सोच रहे होंगे की विकास पुरुष की संज्ञा दिए जानें वाले शिवराज सिंह चौहान नें कोई नया करतब दिखाया होगा... विकास का नया मॉडल पेश किया होगा... आपको बताते हैं कि इस विकास पुरुष ने किस प्रकार एक तुगलकी फरमान से जनकल्याण की योजना बनाईं है। मध्य प्रदेश सरकार के कन्यादान योजना के तहत शहडोल जिले में दलित और आदिवासी महिलाओं के सामूहिक विवाह का आयोजन कराया गया। जिसमें कि सरकार नें 152 लड़कियों की शादी करवानें की व्यव्स्था की। सरकार इस योजना के तहत प्रत्येक लड़की को 5 हज़ार रु और घरेलू सामान देती है। "कन्यादान योजना" यानि सरकार (गरीबों) दलितों और आदिवासियों की बेटियों का कन्यादान करेगी जिसे कि हम यूं भी समझ सकते हैं कि सरकार के मुखिया तो राज्य के मुख्यमंत्री माननीय विकास पुरुष, हिंदू हृदय सम्राट, शिवराज सिंह चौहान हैं। अब ये राज्य की अपनीं बेटियों का कन्यादान किस प्रकार करते हैं आपको बताते हैं... इस योजना को सरकार कल्याणकारी योजना करार देती है और इसके तहत सामाजिक सभ्याचार के नए तानें-बानें बुनती हैं। एक संदेश इस रूप में भी देती हैं कि हम दलितों और आदिवासियों के कितना हित साधते हैं।
लेकिन सच्चाई जान कर आप स्वंय फैसला करेंगे की ये कौन से सभ्य समाज का नियम हैं जहां पर शादी से पहले किसी लड़की को अपनें गर्भवती न होनें के सबूत देनें होते हैं? जी हां दोस्तों ये बात बिल्कुल सही है कि इस प्रकार(सरकारी खज़ानें से) यदि किसी गरीब दलित या आदिवासी लड़की को शादी करवानीं है तो उसे अपनी मेडिकल जांच करवानी होती है, कि कहीं वो लड़की गर्भवती तो नहीं है? ये सवाल करती है मध्य प्रदेश सरकार और वो भी स्वंय के प्रमाण के बिना माननें को तैयार नहीं होती की लड़की झूठ तो नहीं बोल रही। आप सोच के देखिए की क्या भारत में होनें वाले सारे विवाह क्या इसी कसौटी पर होते हैं ? और यदि ऐसा होता है तो आपको और इस तथाकथित सभ्य समाज को और ऐसी सरकार को अधिकार है इसे सही साबित करनें का! इस मुद्दे पर जब विकास पुरुष शिवराज सिंह चौहान से पूछा गया तो सिंह साहब कहते हैं कि "प्रेगनेंसी टेस्ट नहीं करवाया गया है कौमार्य परीक्षण(वर्जीनिटी टेस्ट) करवाया गया है"। जी साहब वाह! आप तो महान हैं! मात्र 5000 हजार रूपयें में आपकी सरकार को ये अधिकार मिल जाता है कि आप किसी दलित औऱ आदिवासी लड़की से ये जान सकते हैं कि आपकी महावारी(पीरियड्स) कब हुई थी? आपनें कभी सेक्स तो नहीं किया ? यही ना... और क्या होता है कौमार्य परीक्षण ? क्या पता लगाना चाहती थी आपकी सरकार? मात्र पांच हज़ार रुपयों के लिए आप किसी भी लड़की को मज़बूर करते हैं कि वो अब आपसे अपनें चरित्र का प्रमाण पत्र प्राप्त करेंगी? सवाल बहुत निकलकर आते हैं...म.प्र सरकार की ये योजना यदि सवर्ण वर्ग की गरीब लड़कियों के लिए होती तो क्या सरकार ऐसा कोई नियम काय़दा बनाती? यदि बनाती तो क्या हमारे समाज के तमाम धर्मावलंबी (ख़ासकर आपकी पार्टी के लोग) इसे उतना ही वाज़िब ठहराते जितना की आज ठहरा रहे हैं? या आपकी विचारधारा में ये महिला की अग्निपरीक्षा की प्रासंगिकता है? आपका ये तुर्रा है कि ये जो महिलाएं होती है ऐसे विवाह में 5000 रु. के लालच में शादीशुदा होनें के बावजूद इस योजना का लाभ उठाती हैं, इसीलिए हमारे जांच करनें पर हमें 14 लड़कियां प्रेगनेंट पाई गईं, और बात भी तय है कि उन उन गरीब लड़कियों को ऐजेंटों द्वारा उनकी गरीबी का लाभ उठाकर ऐसे विवाहों में भेजा जाता हैं, उसके लिए आपकी सरकार कुछ नहीं करेगी। सारा ज़ोर आपका जो है वो महिलाओं पर ही चलता है। शिवराज जी आप साइकिल चलाकर मीडिया को बताते हैं कि मैं पैट्रोल की बचत करता हूं औऱ साईकिल से ऑफिस जाता हूं, लेकिन अब आपकी ये नई योजना है कि सरकारी लाभ यदि किसी को मिले तो वो भी कौमार्य परीक्षण के बाद, आप केवल लड़कियों का ही क्यों कौमार्य परीक्षण(वर्जीनिटी टेस्ट) करवातें हैं? लड़को का भी तो करवाइयें? क्या पता कोई लड़का किसी और महिला का पति हो? या पहले से किसी बच्चे का बाप हो? क्या पता की वो पहले से भी कभी-न-कभी सेक्स करता आ रहा हो? क्य़ा पता कि आपका वो "मर्द" बिना शादी के ही बाप बना हुआ हो? क्या सबूत होता है आपके पास उस "मर्द" कौमार्य का? मेडिकल साइंस की ऐसी कौन सी तकनीक से पता लगाएंगे आपके डॉक्टर कि इस युवक/नौजवान/आदमी/पुरुष/मर्द ने आज तक सेक्स नहीं किया? किसी के बच्चे का बाप नहीं है? किसी औरत़ का पति नहीं है? या कि ये कि वो बाप बननें वाला है या नहीं?
गर्भ में यदि बच्चा हो तो अल्ट्रासाउंड के जरिये लिंग की जांच करवाना गैर कानूनी है लेकिन शादी से पहले लड़कियों का कौमार्य परीक्षण(वर्जीनिटी टेस्ट) करवाना शायद ये कानून बन गया हो मध्य प्रदेश में! और यदि यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं की हर लड़की को शादी से पहेल किसी एमबीबीएस, गायनाकॉलोजिस्ट से चरित्र प्रमाण-पत्र बनावाना होगा। खैर राम राज्य के लिए शायद ये प्रसंग भी आवश्यक है बिना इसके(अग्निपरीक्षा) आपके राम राज्य़ की अवधारणा वास्तविकता में कैसे परिवर्तित होगी भला...!

Friday, July 3, 2009

धारा-377...ऐसा देस है मेरा!

2 जुलाई 2009 दिल्ली हाईकोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को लेकर सालों से चले आ रहे बवाल पर कानूनी मोहर लगाते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 से बाहर माना है। कोर्ट का कहना हैं कि समलैंगिकों पर धारा 377 के तहत कार्यवाही करना भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान की धारा 14, 15 और 21 द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन है। अब सवाल उठता है की आईपीसी की धारा 377 क्या है, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति( स्त्री या पुरुष) के साथ अप्राकृतिक यौन संबध बनानें पर या किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनानें पर उम्र कैद या 10 साल की सजा व जुर्मानें का प्रावधान है। जिससे कि बहुतेरे समलैंगिक जोड़ो (विशेषकर पुरुषों) को प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। गैरकानूनी होनें की वजह से इन जोड़ों के साथ रह कर जीवन-यापन करनें को समाज और प्रशासन गलत मानता रहा है। हालांकि अब भी यह कहना मुश्किल होगा कि प्यार के इस रूप को समाज स्वीकार करता है या नहीं लेकिन कानून तो अब प्यार और विश्वास के इस अनूठे संगम में अवरोध नहीं बन सकता। क्योंकि कानून के मुताबिक इस धारा(377) के तहत ही समलैंगिकों की इस अभिव्यक्ति पर विराम लगा था। कुछ थे जो खुलकर अपनें समलैंगिक होनें की बात को स्वीकार करते लेकिन कानूनी दांव पेंच के आगे वे भी हाथ उठा लेते। समलैंगिकों के अधिकारों के लिए समय-समय पर कई गैर सरकारी संगठन आगे आए और काफी हद उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई। और आज ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन "नाज़ फाउंडेशन" की मुहिम रगं लाई औऱ कोर्ट को ये मानना पड़ा कि 1860 में बनीं धारा 377 को वास्तविक परिवेश में केवल नाबालिग के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनानें और जानवरों के साथ यौन संबध बनानें के लिए ही उचित समझा जाए, एक लिंग के दो व्यक्ति जो कि बालिग हो अपनी मर्जी से साथ रह सकते हैं। अब सवाल आता है विरोध औऱ मान्यता का? विरोध तो कल भी हुआ था औऱ आगे भी होगा, क्योकिं कानूनी मान्यता के आधार पर भी भारत में ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो खुद को भारतीय संस्कृति के पैरोकार मानते हैं औऱ खुद आज तक पता नहीं कितनी बार कानून की धज्जियां उड़ा चुके हैं। ऐसे संगठन है जो यह जानते हैं कि देश का संविधान हमें धर्म, लिगं, क्षेत्र, जाति के नाम पर अलग नहीं करता हैं, जो जनाते है कि देश धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी किसी मस्जिद-गिरजाघर को तोड़ देते हैं, जो ट्रेन जला देते हैं, जो अपनें ही देश में रोटी कमानें-खानें के लिए आए मज़दूरों को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटते है, जो सदियों से सामंतवाद और जातिवाद की चोट से ग्रस्त लोगों के घरों में आग लगा कर उनसे जीनें के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं, जो किसी महिला को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनें हक़ के लिए बंदूक उठा ले और डाकू फूलन देवी बन जाए...ये तो बानगी भी नहीं है दोस्तों...ऐसा देस है मेरा!
अब देखते हैं कि समाज के इस नए पहलू को किन-किन प्रतिक्रियाओं से गुजराना होगा, क्या ऐसे समाज से आप आशा करते हैं कि वो इस सब पर खुलकर सामनें आएगा और इसे स्वीकार करेगा, कानून आपनी जगह सही हो सकता है। नैतिकता के माएनें लेकिन खुद ही सीखनें होते हैं। मैनें आपको बता दिया है कि किस प्रकार कानून का अमल किया गया है इस देश में। न्याय प्रक्रिया तक बात को पहुचानें के लिए भी तो आवाज चाहिए औऱ आवाज के माध्यम किसके पास है और वे किस सोच से इत्तीफ़ाक़ रखते हैं ये भी मायनें रखता है। आज देश में हमारे पत्रकारों की सोच सभी विषयों पर उदारवादी दिखती है कुछ संघी पत्रकारों को छोड़कर, लेकिन क्या इस विषय पर कोई पत्रकार सही और गलत परिभाषित करेगा? क्या कोई पत्रकार समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलानें की मांग को सही ठहाराऐगा ? मैनें देखा कि ब्लॉग पर भी लोग इस विषय पर कुछ लिखनें से डर रहे है, और जो लिख रहे है वो केवल कोर्ट के फैसले की पुष्टि भर के लिए अपनी उदारवादी सोच की उपस्थिति भर दर्शा रहे हैं। शायद उन्हें भी डर है कि कहीं जब हम कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो लोग समझ लेते हैं कि हम कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी है उसी प्रकार यदि हम इस विषय पर लिखे तो शायद हमें भी लोग इसी श्रेणी में ले आएंगे। खैर ये तो सोच है अपनी-अपनी लेकिन सोच संवैधानिक हो ये संभव नहीं? एक सोच का वर्णन तो मैनें इस लेख में कर ही दिया है । अब देखना है कि यही समाज इस नए नियम को किस प्रकार लेता है, देखना दिलचस्प होगा, वैसे उम्मीद तो वही है (विरोध) जो कि पहले बताया गया है । लेकिन अब मामला ये देखना पड़ेगा की यहां पर कोई क्षेत्र, जाति, धर्म, बोली-भाषा, अमीरी-गरीबी का दंश जो भारतीय समाज में प्यार के आड़े आता रहा है, शायद वो केवल ये माननें भर से कम हो जाए कि लिंग तो समान नहीं है ना, बाकि सारी विषमताएं एक मान ली जाएंगी शायद...।

Tuesday, June 16, 2009

ठगी... लक्ष्य एक पर नुस्खें अनेक !

अशोक जाडेजा, सुभाष अग्रवाल और नवीन शर्मा ये नाम आपनें पिछले कुछ दिनों में बहुत सुनें होंगे। हर टीवी चैनल हर अखबार में आपको ठगों की इस त्रिमूर्ति की करतूतों का पता चल रहा होगा। इस लेख के जरिए हम ठगों के अनेक रूपों से भी आपको अवगत करवाएंगे।कोई खुद को माता का अवतार बता कर लोगों से रु ठगता, कोई फर्जी व्यापार के नाम पर। लक्ष्य एक पर नुस्खें अनेक क्योंकि इन सभी का उद्देश्य तो ठगी ही है, और किस प्रकार ये बड़ी दिलचस्प बात है.... जिसकी जितनी पहुंच थी उसनें उस हिसाब से जनता को बेवकूफ बनाया। अशोक जाडेजा ने देशभर में फैले अपने समाज(सांसी समाज) के लोगों को बेवकूफ बनाया और 2000करोड़ रुपये की ठगी को अंजाम दिया।
सांसी समाज जो कि अनुसूचित जाति वर्ग में सबसे निचले पायदान पर आनें वाली जातियों में से एक है, या यूं कहें कि ये वो जाति है जो कि आज तक अपना पुश्तैनी काम नहीं छोड़ पाई है। शिक्षा के कम स्तर के चलते औऱ गैरकानूनी कृत्य में ज्यादा लिप्त होनें के कारण सान्सीन्यों को सभ्य समाज में हमेशा घृणा की नजरों से देखा। आज के समय में भी सांसी समाज के लोगो का मुख्य काम गैरकानूनी शराब बेचना, स्मैक, गांजा बेचना इत्यादि रहा है। जो सांसी शिक्षित हो गए वो इस पेशे दूर हो गए और छोटे-मोटे कल-कारखानों या कहीं चपरासी का काम करके ईमानदारी से अपनी गुजर-बसर करते हैं। खैर इसमें कोई दो राय नहीं की सांसी समाज के लोग शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा होते हुए भी, लेकिन आर्थिक रूप से अन्य दलित जातियों की अपेक्षा इनकी स्थिति थोड़ी बेहतर होती है। लेकिन अशिक्षा और अंधविश्वास की इस कमजोरी को ही इन्हीं के सामाज के पेशे से बीएएमएस डॉक्टर अशोक जाड़ेजा नें स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाया। अशोक जाडे़जा ने खुद को सांसियों की आराध्य देवी सिकोत्तरी देवी का अवतार बताया और कहा कि समाज की गरीबी दूर करनें आया हूं। जाड़ेजा ने लोगों से 200रु लिए और दुगुनें करके दिखाए फिर खुद की सीडी़ बनवाई, माता का अवतार बताया। गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश और कई राज्यों के अपनें समाज के लोगों को बेवकूफ बनाया और 2000करोड़ के फर्जीवाड़े को अंजाम दिया। पकड़े जानें पर नाम दिया "एमएलएम" का।
आगे बात बात करते है दिल्ली के ठग सुभाष अग्रवाल की, खैर इन्होनें किसी समाज विशेष को नहीं ठगा बल्कि सभ्य समाज के व्हाइट कॉलर लोगों को लगाया है करोड़ो का चूना। इन साहब ने तीन फर्जी चिट फंड की कंपनी खोली और लोगों को लाखों के बदल करोड़ों का ख्वाब दिखाया। पढ़े-लिखे समझदार लोगों को कैसे बेवकूफ बनाएं ये इन महाशय से सीखें। फर्जी स्कीमों में लोगों का रुपया लगवा कर उन्हें लगा गया चपत।औऱ फिर वो पैसा सट्टा बाजार और ऑनलाइन ट्रेडिंग में लगा दिया ऐसा कहना है अग्रवाल साहब का। पर अपनें पर लगे इस काम को वो भी एमएलएम का नाम देते हैं।
आगे बात करते हैं नवीन शर्मा की ये शख्स भी इनका ठग्गू भाई है , अशोक जा़डेजा ने अशिक्षितों को धर्म के नाम पर लोगों को ठगा, सुभाष अग्रवाल नें शहरी लोगों को चिट-फंड के नाम धोखाधड़ी की,
नवीन शर्मा नें भी चिट फंड के नाम पर ही लोगों को ठगा और इनके शिकारों में प्रमुख नाम मुंबई हमलों में शहीद हुए मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के घरवालें भी हैं। नवीन शर्मा नें मनीमंत्र नाम की चिट-फंड और एमएलएम की दो कंपनियां खोली और लगा दिया लोगों को करोड़ो का चूना। मेजर उन्नीकृष्णन के घरवालों ने भी नवीन शर्मा की फर्जी कंपनी में लगाए थे 25हजार रु। ये साहब भी पैसा डबल कर चूना लगानें का धंधा करते थे, इनके शिकार भी सुभाष अग्रवाल की तरह व्हाइट कॉलर औऱ समाज में उच्च वर्ग (सामाजिक रूप से) लोग अधिक हुए। पकड़े जानें पर धंधा एमएमएम का बताया इन साहब नें भी। दिल्ली के मशहूर बीके ज्वैलर्स ने भी लोगों को ठगनें का काम आपनी साख के चलते आसानी से किया। इन्होनें लोगों को साढ़े 13हजार रु, दो साल में 26लाख, 30लगानें पर 1करोड़ मिलनें की स्कीम का झांसा देकर लोगों के 500 करोड़ रु की चपत लगा गए। 1975 से दिल्ली के पंजाबी बाहुल पॉश इलाके तिलक नगर में इनका बड़ा शो-रूम है। शो-रूम के मालिक बीके मलिक और चेतन मलिक साहब फरार है। इन्होनें अपनें शिकार बनाया दिल्ली के ही पंजाबी और सिख समुदाय के लोगों को, अब वो लोग पढ़े-लिेखे न हो यह कहना तो मुश्किल सा लगता है।
इनके द्वारा की इस ठगी का एक नाम दिया गया एमएलएम (मल्टी लेवल मार्किटिंग) इस काम में जो लोग लिप्त होतें हैं वो या तो बीमा ऐजेंट होते हैं, या किसी सत्संग या डेरे के अनुयायी मुख्यत:, टीचर(टयूशन पढ़ानें वाला) छोटे मोटे डॉक्टर, मुह्ल्ले या कोई मशहूर आदमी। या साफ शब्दों में हम ये कहे कि वो व्यक्ति जिसका सरोकार रोज-मर्रा में लोगों के एक समूह से हो, जिसका काम पब्लिक डीलिंग का हो। सत्संग में भी लोगों को पब्लिक डीलिंग का खूब मौका मिलता है, और टीचरों, डॉक्टरों पर लोग जल्दी विश्वास कर लेते हैं। अब ये एमएलएम कैसे जनता को चूना लगाती है ये बताते हैं। जो लोग पहले
से इस व्यापार में होते हैं वो बेचारे अपनें फसें हुए पैसे निकालनें के लिए लोगों को इस काम में फसांते। दरअसल आपको सबसे पहले सिर्फ दो सौ रुपये या जो भी उस कंपनी द्वारा निर्धारित न्यूनतम राशि बताई जाती है उसे लगाया जाता हैं। उसके बाद आपको अपनें जैसे ही 5 या 10सदस्य बनानें होते हैं और उसके बाद उसे अपनें द्वारा लगाई गई राशि के बदले चैक मिलता है शुरूआत में तो सही में आपको आपकी रकम बड़ी हई मिलती है लेकिन इसके बाद आप की रकम का क्या हाल होता हैं ये इन सभी केसों में आपनें देख लिया होगा। औऱ एक बात आज कल कुछ एमएलएम की कंपनियां अपनें उत्पाद भी बेचती है और आपको 5हजार रू में सौंदर्य प्रसाधन के सामान भी दे देंगें, या जो भी शुरुआती रकम हो उसका आपको सामान दे देंगी और ये कहेगी की आप इसे बेचें या इस्तेमाल करें आपकी मर्जी, लेकिन अगर आप बेचकर आ मेंबर बनाते हैं तो आपका पैसा दुगना और ये सामान भी आपका जितनें मैम्बर बनेंगे उतना ज्यादा कमीशन। और लोग पागलों की तरह अपनें रिश्तेदारों, ऑफिसों मेल-जोल के दोस्तों में घंटों लोगों को अपनी नई-नई स्कीमों से पकाते हैं। और झांसा देते हैं करोड़ों कमानें का, अगर आप अपनें किसी दोस्त को कहेंगे कि भाई ये काम (चेन सिस्टम वाला) बड़ा बेकार है। इसमें बहुत साले ठगी होते हैं। तो भाई आपका सगा मित्र अपसे किसी भी हद तक बहस में पड़ जाएगा और देनें लगेगा ऐसा ज्ञान देनें की आपकी तो सारी पढ़ाई लिखाई धरी रह जाएगी। ऐसे बिजनेस में फंसे लोग आपसे यदि पहली बार मिलेंगे तो आपसे सीधे ये सावाल करेंगे की आप क्या करते हैं? कितना कमाते हैं? और दस साल बाद आप खुद को कहां देखते हैं? कितना कमा लेंगे आप दस साल में? आप समझ नहीं पाएगें की आपके सामनें एक साल में इतना औऱ पांच साल में इतना और साल में इतना की आपको लगेगा की भाई आपसे बड़ा ज्ञानी तो कोई दुनिया में था ही नहीं। और यदि आपनें उनके प्लान के साथ अपनी असहमति जता दी तो आपको वो भाई साहब दिल्ली के शाह ऑडिटोरियम, फिक्की ऑडिटोरियम, और न जानें कौन-कौन सी जगहों पर सेमिनार के लिए ले जाते हैं। जहां पर आपको ऐसे-ऐसे उदाहरण पेश करके बताएंगे की आप कुछ नहीं कर पाएंगे। सन 1996की बात है मुझे मेरे किसी दोस्त नें एक हेल्थ स्पलिमेंट दिया और कहां कि तुम या तो इसे खुद पी लेना या किसी को बेच दो, लेकिन मैंबर बना कर। मैं उसके इस झांसे में नहीं पडा़, फिर 1998में मेरे मुह्ल्ले में लोगों को एमवे के सदस्य बनानें की मुहीम चली, लोग सदस्य बनें सोफा सेट बनानें वाला 5सौ रुपये के फेस वॉश(एमवे का अपना उत्पाद) से मुंह धो रहा था, क्या करे फंस गया था शुरुआत में मांगे थे 750रुपये और बदले में सामान दे दिया और बेचारा अपनें रिश्तेदारों को लेकर जाता हर रविवार को सेमिनार में, जहां आपको ख्वाब दिखाए जाते। हुआ क्या कुछ भी नहीं कंपनी आज टीवी में विज्ञापन देती है ताकि लोगों को फर्जी न लगे, सामान कोई नहीं खरीदता बनाओ सदस्य और बनाओ पैसा। ऐसी ही एक औऱ कंपनी जापान लाईफ जो गद्दा बेचती थी 1लाख 50हजार रुपये का ," आपकी कमर में दर्द नहीं होगा" आप ऐसे पांच गद्दे बेंचे या सदस्य बनवाएं अपनें पैसे दुगनें कर लें। आजकल युवाओं को लुभानें के लिए भी कई एमएलएम कंपनियां बाजार में है जिनमें से एक है ईबीज़ ये कंपनी युवाओं को कम्पयूटर शिक्षा देनें का झांसा देती हैं और अपना एमएलएम का बिजनेस बड़े धड़ल्ले से बाजार में कर रही है।छात्रों से पहले 7500रुपये लिए जाते हैं और फिर उन्हें काली पैंट और सफेद कमीज पहनकर एक डायरी हात में पकड़ाकर भेज दिया जाता है सपनों की उस काल्पनिक दुनिया में जहां वो खुद को आनेंवाला धीरूभाई अंबानी समझ बैठते हैं।
ऐसी कुछ कंपनियों के फर्जीवाडें का खुलासा होनें से सभी में एक बात सामनें आती है आदमी का शिक्षित होना ही काफी नहीं हैं, किसी आदमी का ऊंची जाति का या तथाकथित सभ्य समाज से होना ही उसके चारित्रिक गुणों का पैमाना नहीं हैं। आपको जितनें लोगों का उदाहरण देकर यह बतानें की कोशिश की गई है कि ऊंची जाति, पढ़ा-लिखा, अच्छा रहन-सहन, पॉश कॉलोनी का निवासी और अच्छी अंग्रेजी भाषी, साऊथ दिल्ली के कल्चर का होते हुए भी कोई कोई ठग सकता है ।
सावधान रहे!

Sunday, June 14, 2009

"जाति भंवर में फंसा लोकतंत्र" मोहल्ला पर बहस

अविनाश भाई के मोहल्ले में आए दिन बहस चलती रहती है, अभी कल ही धर्म संबंधित पर्दा प्रथा पर बहस हुई थी, और आज "जाति के भंवर में फंसा लोकतंत्र" पर। खैर ये मेरे मित्र प्रमोद का मानना है तो मैनें भी कुछ कहा...आप भी जानें जरा क्या कह रहे थे भाईजी और क्या कहना चा रहे हैं हम ....

प्रमोद भाई, आपकी पोस्ट पढ़ी मुझे लगा कि आपके विचारों में विरोंधाभास है, आप एक तरफ कह रहे हैं कि जाति के आधार पर वोट पढ़ता है,नेता अपनी जाति तक सीमित रहते हैं और दूसरी तरफ ये कि देश में दबंग जातियों नें नीची जातियों को वोट डालनें नहीं दिया जाता था। आपको ये नहीं लगता कि ये जो नीची जाति को वोट न डालनें की बात नें ही नीची जातियों में प्रतिनिधत्व की भावना को जागृत किया,क्या ये प्रतिक्रिया नहीं है समाज के वंचित समुदाय की कि वो अपनें प्रतिनिधत्व को पूरा समर्थन देते हैं। मैं जानता हूं की वास्तविक परिदृश्य में कई जगह ये बात पूर्ण रूप से साबित नहीं होती की सभी प्रतिनिधि अपनी जाति के लोगों के भले के लिए अपनें भले को दांव पर लगा देते हैं, परंतु ये बात आपकी बात से ही निकल कर आती है कि नेता लोग आपनी जाति तक ही सीमित रहते हैं? मरे भाई आपनें राजस्थान के जिस क्षेत्र की बात कि मेरे पूर्वज कभी उसी क्षेत्र से दिल्ली मजदूरी करनें के लिए दिल्ली आए थे, मैं आज भी अपनें गांव जाता हूं और जातिवाद का जितना गहरा दंश आज भी राजस्थान के पढ़े-लिखे और अनपढ़ में विद्यमान है उससे आप भली-भांति वाकिफ होंगे, वरना क्या कारण रहा होगा कि यू.पी के राजेश पायलेट को राजस्थान के गुर्जर बाहुल इलाके से टिकट दिया गया और जब तक वो सीट रिजर्व नहीं हुई थी वो उनकी खानदानी बपौती बनीं हुई थी और क्या भला किया उन्होनें अपनें समाज का ये आपनं गुर्जर आंदोलन में देख ही लिया होगा।एक कर्नल साहब आए पढ़े-लिेखे थे गुर्जर समाज में औऱ मूल रूप से राजस्थान के भी थे, पर समाजिक आंदोलन को राजनीतिक रूप दे कर अपनें लिए भी एक सीट लेनें की पूरी कोशिश की थी लेकिन समाज ने उनका साथ नहीं दिया और हार गए आप जिस 21वीं सदी की बात कर रहे हो वहां आज भी जातिय शोषण कितना होता है इसे आप भली-भांति परिचत होंगे। आज लोगों को जातिय दलों और नेताओं से चिड़ होनें लगी है हमारे तथाकिथित उदारवादी पत्रकार इसे बुरा समझते हैं, पर क्या आप उस समाज को या उस राजनीतिक सोच को सही ठहराएंगे जिसमें कि आप केवल कांग्रेस की हां में हां मिला कर उसके राजनीतिक पिछलग्गू बनकर अपनें वोट की एफ.डी करवाते रहें?ये कांशीराम-लालू-मुलायम-पासवान-मायावती सभी लोग उस टीस और उस शोषण की उपज हैं जिसे की आप एक पार्टी के नीचें खड़े हो कर हां में हां मिलाना और सामजिक समरसता का नाम देंगे।क्योंकि आरक्षण न होता तो शायद कोई दलित या आदिवासी चुनाव लड़ना तो दूर मेरे मित्र वोट होता क्या है ये नहीं जानते थे। आज जब लोगों में अपनें प्रितिनिधित्व की सोच जागी हैं तो राजनीतिक दलों नें भी माना कि इधर इनकी आवाज को दबा कर नहीं रखा जा सकता। आप कल्पना करें कि जब ये छोटे राजनीतिक दल नहीं थे जिनका मैनें जिक्र किया तो समाज में समरसता थी? कोई किसी पर शोषण नहीं करता था ? सभी लोग बराबर थे? आज लोग जानते हैं कि कोई उनकी बात सुननें वाला है औऱ यदि नहीं सुनेगा तो बता भी सकते हैं उस नेता को। ये जो जातीय महत्ता की बात आपनें कहीं ना वो जब नहीं होती जब जगजीवन राम जैसे दलित नेता अपना मंत्रालय भर तक सीमित रहते है..ये जब होती है जब एक बड़ी आवाज डीएस फोर से उठकर मंडल तक जा कर उ.प्र और बिहार जैसे राज्यों में अपनी ताकत को दर्शाती है... आगे फिर कभी...

Saturday, June 13, 2009

मोहल्ला पर बहस

मोहल्ला पर बहस में हम भी कूद पड़े, सवाल था कि भाई, छोटे वस्त्र: दुर्व्यवहार करने का न्यौता ! और गंभीर बात ये कि इस पोस्ट के लिखक मुस्लिम थे, और उन्होनें इस्लाम में परदा प्रथा के बारे में बताई गई बातों को कुरान के उदाहरणों से स्पष्ट किया। हालांकि मैं भी परदा प्रथा के खिलाफ हूं, पर न जानें क्यों जो प्रतिक्रिया मिली न वो बेहद बुरी थी, टिप्पणियों के कॉलम में मानों सारे लोग सोचे बैठे थे कि आज अपना सारा गुस्सा उतार देंगे इस मुस्लिम समाज पर। हर कोई नफरत की बंदूक भरे बैठा था, और सीधा ब्लॉग का ही बहिष्कार करनें को आमादा है....

अविनाश भाई, मुझे नहीं पता कि जिन लोगों ने प्रतिक्रिया दी है वो पत्रकार हैं या लेखक, वो संघी है या कम्यूनिस्ट य़ा फिर चौराहे की रौनक, जिन्हें कि चौक पर खड़े हो कर ज्ञान बघारनें में मजा आता है और किसी अन्य की बात सुननें पर बवाल करनें में।
हो सकता है कि आप लेखक के लेख से सहमत न हो पर, उसका तार्किक विररण किया जा सकता है, पर जिस प्रकार के कमेंट मिल रहे हैं, वो सही नहीं लग रहा, आप सीधा ये कह रहे हैं कि 'इन सालों के साथ जो गुजरात में हुआ वो ठीक है"। भाईयों लेखक अपनी बात को रख रहा हैं, वो बात किसी धर्म विशेष से जुड़ी है, जिसका जिक्र भी किया उन्होनें उस धार्मिक ग्रंथ को कोड करके...। मेरे मित्रों हम यहां केवल बोलनें या ज्ञान बघारनें के लिए नहीं आते हैं, हमें सुनना भी होगा,समझना भी होगा। मैं फेवर नहीं करता बुर्खा प्रथा का, पर हिंदु धर्म में भी तो परदा प्रथा आज तक चली आ रही है। आप और हम केवल एक धर्म विशेष को घृणा की नजरों से आंकना जब जक नहीं छोड़ेगे तब तक कोई अपनी पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर हमारे साथ मिलकर चलनें को नहीं तैयार होता। अगर कोई हिंदू लेखक इसी विषय को उठाता तो शायद इतनी तो कड़ी प्रतिक्रिया नहीं मिलती की ब्लॉग का ही बहिष्कार करें। अरे आप भी कहें हम भी कहें औरों को भी कहनें दे, फिर एक स्वस्थ बहस छिड़े कुछ आप सीखें कुछ हम सीखे...माहौल खराब न हो, वरना आपमें और चौक पर हलवाई की दुकान पर खड़े ज्ञान बघारते लोगों में फर्क कर पाना मुशकिल हो जाएगा, वो ज्यादा खतारनाक होगा।

Sunday, June 7, 2009

छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबंध और देश की बागडोर युवा हाथों में..!

छात्रसंघ चुनावों पर देश के कई राज्यों ने प्रतिबंध लगाया हुआ है, और जिन राज्यों में छात्रसंघ के चुनाव हो रहे हैं वहां भी लिंगदोह नामक सरकारी नीति लागू होती है। छात्रसंघ देश को एक नई दिशा और नीति देते हैं, देश में क्या गलत और सही है ,उसके विरोध औऱ समर्थन में देश के पढ़े-लिखे युवाओं का आवाज बुलंद करना, लोकतंत्र के जिंदा होनें का सबब होता है। देश को किस दिशा में मोड़ना है, क्या सही है और क्या गलत ये पॉलीसी मेकर का काम होता है, और पॉलिसी मेकर बनानें की फैक्टरी ही बंद कर दी जाएगी तो पॉलीसी का विदेशों से आयात करना ही वाज़िब कहलाया जाएगा। हमारे देश में ऐसा ही कुछ हो रहा है, हमारे आज के युवा विदेशों से पढ़कर आए हमारे नेताओं के बेटों को ही देश के युवाओं का प्रतिनिधि मानतें है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में 7 साल से भी ज्यादा समय तक सक्रीय रहा, मैंनें डीयू की राजनीति को समझा कि वहां आनें वाले दस साल तक अभी और ग्लैमर और पैसों की राजनीति ही चलेगी और हो सकता है कि उससे ज्यादा समय भी लग जाए। दरअसल 2002 के बाद से अगर इस बार 08-09 के चुनावों को छोड़ दे तो डीयू के अध्यक्ष पद पर कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई ही जीतता है,और सीटों के बहुमत के आधार पर भी वो ही जीतता आया है। कारण मैं बता चुका हूं, कांग्रेस को पता है कैसे डीयू का राजनीति में मनी-मसल-ग्लैमर की राजनीति ही जीत का मूल मंत्र है। लिंगदोह कमेटी के बाद हुए चुनावों में मसल की क्षमता थोड़ी घटी है लेकिन बाकी चीजें जस की तस बनीं हुई है। और यही फार्मूला कांग्रेस नें राजनीति की मुख्य धारा में अपनें चिकनें चेहरों वाले विदेशी ब्रांड के नेताओं को युवा ब्रिगेड के नाम पर उतार कर साबित कर दिया। देश के युवा की परिभाषा ही बदल दी, देश का युवा सवाल न करे, देश के युवा में की सोच को तकनीकि शिक्षा के माध्यम से इतना संकीर्ण कर दिया जाए कि वह महज नौकरी पानें तक के लिए पढे और चुप करके बैठ जाए औऱ विज्ञापन के प्रभाव के कारण केवल दोस्तों में खीझ के डर से वोट डालनें को अपनी सबसे बढ़ी उपलब्धी मानकर देश की बागडोर सौंप दें एक कॉर्पोरेट कंपनी के हाथों में जो अपनें फायदों के हिसाब से पॉलिसी बनाए। आपकी बात में दरअसल हांजी के भाव वाले युवाओं की आवाज का विरोध है, ये हांजी का माहौल किस नें बनाया है, क्या कारण रहा होगा कि देश के युवा आज सहीं गलत के विरोध में मोमबत्ती लेकर तो सड़क पर उतरनें का शौक रखतें है पर छात्र संघ को सही मयनों में जीवीत रखनें का मागदा नहीं। मैं बताता हूं ये जो पॉलीसी मेंकिंग की बात मैनें कही ना, ये ऐसा तुर्रा है कि जनता के मुंह से हांजी के अलावा कुछ न निकले, आप इतनें लोगों को अंधा बना दो की आपको कानें को राजा मानना ही पड़े।

Tuesday, June 2, 2009

दलित महिला स्पीकर!

कांग्रेस का दलित प्रेम किसी भी दलित नेता को सक्रीय राजनीति से अलग करना ही होता है,पहली बार तो कांग्रेस या भाजपा में दलित नेताओं की उपस्थिति केवल एक मंत्रालय के लिए सामाजिक न्याय के संदेश देनें भर के लिए होती है, जिन पार्टियों में आज भी मनुवाद जिंदा हो,वहां राहुल गांधी का किसी दलित के घर में ठहरना या मीरा कुमार को स्पीकर बनाना एक समान लगता है। ये आधुनिक मनुवाद है, जिसमें आप को सत्ता कि शक्तियों से दूर रख काम निकाला जाता है। दोस्तों हम आपको एक बात और बता दें कि कांग्रेस आरक्षित सीटों पर खड़े किए गए अपनें दलित प्रत्याशियों को ही दलित नेता मानती है। सोच लिजिए अगर बाबा साहब अम्बेडकर ने संविधान में दलितों का आरक्षण न दिया होता तो ये शब्द कांग्रेस शब्दकोश में न दिखाई पड़ता। बाबू जगजीवन राम कांग्रेसियों के कहे मुताबिक दलित नेता थे, लेकिन वो अपनी राजनीतिक ज़मीन कभी बिहार के सासाराम से आगे नहीं ले जा सके। आज उनकी ही राजनीतिक विरासत को उनकी आईएफएस बेटी संभाल रही है, औऱ वो भी अपने सीमा क्षेत्र में रह कर। कांग्रेस कोई उन्हें दलितों की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्यों में प्रचार के लिए नहीं बुलाती और न ही अपनी किसी रैली में दलित नेता के रूप में प्रमोट करती है। कांग्रेस भली-भांति जानती है कि "नेता हमारा और वोट तुम्हारा"। कांग्रेस ने कोई पहली बार ऐसा काम नहीं किया, दिल्ली अंबेडकर नगर से 44 साल से जीतते आए चौ.प्रेम सिंह को जब दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस की जीत हुई, लेकिन जब उन्हें दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत किए जानें की बात हुई तो,विधानसभा अध्यक्ष बना कर उन्हें सक्रीय राजनीति से अलग कर दिया।कांग्रेस अपनें दलित नेताओं को न तो प्रचार के लिए उतारती है औऱ न ही दलितों से सीधे संपर्क साधनें की आज्ञा देती है। नारा आज भी वही है जिसको लेकर बाबा साहब अम्बेडकर ने विरोध जताया तो गांधीजी अनशन पर बैठ गए थे "नेता हमारा वोट तुम्हारा". बीजेपी की तो क्या कहें पहली बार किसी दलित को अध्यक्ष बनाया ओर उसी का स्टिंग ऑपरेशन करवा कर बता दिया कि आने वाले समय में कभी किसी दलित को कोई बड़ा काम नहीं दिया जाएगा।

Thursday, May 28, 2009

डेरा संस्कृति और सिख संप्रदाय

24 मई 2009 रविवार को ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में डेरा सचखंड बल्लां वाला के संत निरंजन दास और संत रामानंद पर हुए हमले की प्रतिक्रिया 25 मई को भारत के पंजांब, हरियाणा और जम्मू में दिखी। जिसका हर्जाना लगभग पूरे उत्तर भारत को उठाना पड़ा। पंजाब के रास्ते जानें वाले सभी मार्ग रेल और सड़क बंद, काम-धंधे बंद, कई जगह आगजनी, विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, कई बसे, ट्रेनें यहां तक की एटीएम तक को आग भीड़ ने आग के हवाले कर दिया। टेलीविजन पर खबरें आ रही थी की विएना में एक गुरुद्वारे में हुए हमले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग समझ रहें थे कि गुरुद्वारे पर हमला विएना (ऑस्ट्रिया) में हुआ है फिर ये लोग यहां क्यों प्रदर्शन कर रहे है? और एक बात प्रदर्शन करनें वालों में सिखों की संख्या का अनुपात भी कम नजर आ रहा था, कारण क्या है कुछ समझ में नहीं आ रहा था। शायद बात को मीडिया बंधु सही तरह से समझ नहीं पाए थे कि बात आखिर हुई क्या है। दरअसल ऑस्ट्रिया के विएना में जो गुरुद्वारा सचखंड साहिब है वो किस प्रकार अन्य गुरुद्वारों के भिन्न हैं, पंजाब के डेरों में डेरा सचखंड साहिब बल्लां रामदासियों और रविदासियों(आम भाषा में यदि हम कहें तो चमारों) का का डेरा कहा जाता है।डेरा सच खंड की स्थापना 70 साल पहले संत पीपल दास ने की थी। पंजाब में डेरा सच खंड बल्लां के करीब 14 लाख अनुयायी हैं।
वैसे तो पंजाब में 100 से ज्यादा अलग-अलग डेरें हैं, पर डेरा सच के अनुयायियों में ज्यादा संख्या में दलित सिख और हिंदू है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 34 प्रतिशत है। रविदासिए मतलब भक्तिकाल के महान सूफी संत रविदास के अनुयायी। जिन्होनें की जाति-व्यवस्था के विरुद्ध समाज की कल्पना की थी। सिख धर्म के कई समूह डेरा संस्कृति के खिलाफ रहे हैं। क्योकिं इन डेरों के प्रमुख खुद को गुरु दर्शाते हैं। फिर इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश क्यों होता है। यहां सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि निरंकारी, राधा-स्वामी ब्यास, डेरा सच्चा सौदा और न जानें कितनें ही ऐसे डेरे हैं जहां के गुरु सिख ही हैं, और वे भी गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को ही अपनें सत्संग में बाटंतें है। या शायद ऐसा हैं कि समाज में उच्च वर्गों के द्वारा चलाए जानें वाले डेरों से सिख के किसी समूह को परेशानी नहीं है लेकिन निम्न वर्गों जिन्हें कि सिख धर्म में तिरस्कार झेलना पड़ा हो, उनके डेरों से ही सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज है। अब समझ में ये नहीं आता की ऐतराज सभी डेरों के प्रमुखों से है जो कि खुद को गुरु कहलाते हैं, या कि डेरा सच खंड से है? एक धड़े का ये भी मानना है कि वे संत रविदास को गुरु के रूप में मानते हैं इससे उन्हें ऐतराज है। सिख धर्म की स्थापना करते समय गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म में जाति व्यवस्था कि कल्पना नहीं की थी, हिन्दू धर्म की कुरितियों से परे ही सिख एक अलग पंथ बना। पर
धर्मावलंबियों के आशीर्वाद से जातिवाद का दंश ऐसा बोया गया कि संत रविदास जैसों को जन्म लेना पड़ा। सिख धर्म में जातिवाद की टीस झेल रहे नीची जाति के सिखों रामदासिये, सिक्लीकर, बाटरें, रविदासिए सिख,मोगरे वाले सरदार,मजहबी सिख,बेहरे वाले,मोची,अधर्मी(आदि-धर्मी), रामगढ़िए, और न जाने कितनी दलित जातियों के लोगों को सिख धर्म ने भी वही कुछ दिया जो कि हिंदू धर्म में सवर्णों ने दलितों को दिया, सिर्फ यातना। क्यों जरूरत पड़ी की इतने डेरे खुले उसी पंजाब में जिसमें की अलग पंथ की नीव रखी गई थी इस उद्देश्य से, कि कोई ऐसा धर्म हो जो कि सभी लोगों को बराबरी का अधिकार दे, जिसमें वर्ण व्यवस्था का मनुवादी दंश न हो। जिसमें मूर्ति पूजा न हो, जिसमें गुरु वो परमात्मा है जो कि निराकार है, जिसका कोई आकार नहीं है। दस गुरुओं तक गद्दी चली दसेवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहां "सब सिख्खन को हुक्म है गुरु मानयों ग्रथ" मतलब अब कोई गुरु नहीं होगा गुरु ग्रथ साहिब ही गुरु होगी। लेकिन गुरुद्वारों में सिख जट्टों का वर्चस्व रहता देख, समाज के सबसे निचले वर्ग के लोगों को ने डेरों का सहारा लिया। कहनें को इन डेरों में सभी को समान माना जाता है। पर कई डेरों में पैसे वाले लोगों का वर्चस्व है और बहुतेरे ऐसे भी हैं जिनके अनुयायिओं में दलित और समाज में निम्न वर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। डेरा सच खंड भी उन्हीं में से एक है। सवाल अब भी वही है कि क्या डेरा सच खंड के प्रमुख संत निरंजन दास और उनके चेले संत रामानंद ने कोई ऐसा काम किया था जिससे की सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज था ? क्या डेरा सच्चा सौदा सिरसा के प्रमुख गुरमीत राम-रहीम की भांति इन संतों के परिधानों में उन्हें गुरु गोबिंद सिंह की झलक दिखाई दे रही थी ? क्यों गोली मारी गई? क्या शिकायत थी? शायद विएना के
गुरुद्वारे डेरा सचखंड बल्लां वाल में सिख गुरुद्वारों की तुलना में चढ़ावा अधिक आ रहा था। डेरा सच खंड बल्लां वाला के प्रमुख निरंजन दास आज तक घायल अवस्था में हैं औऱ उनके चेले और डेरे के उप-प्रमुख संत रामानंद की मृत्यु हो चुकी है। सिख के किसी समूह को शायद दलितों औऱ पिछड़ों के डेरों पर हमला करना आसान लगा होगा। या फिर जातिवाद के भयावह चेहरे में पंजाब की 34 प्रतिशत दलितों के आबादी का एक साथ होने की प्रतिक्रिया थी? जिन्हें की सिख समाज ने हमेशा तिरस्कृत किया चाहे वह भी सिख ही क्यों न हो। सवाल के पहलू क्या हैं ये सिख धर्म के पैरोकार जानते हैं और कोई नहीं।

नवीन कुमार ‘रणवीर’
भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली (07-08 बैच)

Saturday, May 23, 2009

मेरे मित्र ऋषि कुमार सिंह के ब्लॉग पनिहारन पर जरनैल सिंह के जूते के प्रकरण पर छिड़ी बहस पर हमनें भी कुछ कहा...जूते की प्रासंगिकता पर एक और तर्क शायद लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ही नहीं मानव जाति के संदर्भ में भी शायद सही साबित होता हो....
जैदी और जरनैल सिंह दोनों की पीड़ा और प्रतिक्रिया में अंतर नहीं किया जा सकता, बात सही है...इस जूता प्रकरण से एक वाकिया याद आता है, किशोरावस्था में मैं एक बाग में खेलते वक्त बंदरों के झुंड में फंस गया था, मैं भागनें में तेज था तो किसी तरह अपनी जान बचा कर भाग और बच गया। मैंनें ये बात अपनी अम्मा को बताई तो अम्मा ने अपने अनुभवों के अनुसार एक टोटका बताया, कि कभी बंदरों के झुंड में फंस जाओ तो अपनी चप्पल या जूता निकाल कर हाथ में ले लेना बंदर तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे...मैंनें पूछा अम्मा क्यों बंदर क्या जूते से डरते हैं? अम्मा बोली कि बंदर इस बात से डरते हैं कि जिस बंदर को जूता पड़ा वो झुंड से अलग कर दिया जाएगा...इसलिए बंदरों के लिए ये टोटका अम्मा के समय प्रासंगिक था तो उन्होनें मुझे बता दिया, पर आज के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए भी ये प्रासंगिक लगता है, अम्मा तो अब इस दुनिया में नहीं हैं...मैंने उस समय तो उनके टोटके को अंधविश्वास भर माना, पर आज लगता है कि जूता कितना प्रभावशाली है,शायद सही कहा हो अम्मा ने...आखिर इंसान के पुर्वज भी तो बंदर ही थे...।

दोस्तों ये मेरे अपनें विचार हैं जो कि इस सारे घटनाक्रम के होनें पर सही या गलत दोनों हो सकते हैं...

Monday, May 18, 2009

बीजेपी की हार पर परेशान पत्रकार

बीजेपी की हार या आडवाणी की हार? मोदी के कारण हार या आडवाणी के कारण हार? बीजेपी के खुद के कारण हार या सहयोगी दलों के कारण हार?सवाल संघी कैम्प को परेशान कर रहा है,पता नहीं क्यों हमारे पत्रकार मित्र इस पर परेशान हो रहे हैं. बीजेपी के साथ दिक्कत है की विचारधारा में ही विरोधाभास रहा है, हमारा देश धर्मनिरपेक्ष हैं ये भाई लोगों से कहते नहीं बनता और राष्ट्रवाद का अपना अलग दर्शन लिए देश में पीएम इन वेटिंग और सीएम इन वेटिंग बनाते चलते हैं, अब तो शायद इन्हें आदत हो गई है वेटिंग रहनें की, अटलजी को भी कई साल वेटिंग लिस्ट में रहना पड़ा था कई बार तो ट्रेन ही कैंसल हो गई, लेकिन संघर्ष करते रहे, एक बार आरएसी में टिकट मिला 13 दिन सरकार चली,संसद ने चलान बना दिया भई आरएसी में भी दो लोग एक सीट पर बैठ कर जा सकते हैं अटलजी 13 लोग संग लिए थे. और लोकसभा की ट्रेन से उतार दिए गए,फिर टिकट लिया वेटिंग, फिर भी हार न मानी और 13 महीनों तक यात्रा पूरी हुई ही थी की गाड़ी के संग लगे एक एक्स्ट्रा इंजन ने ही साथ नहीं दिया और लोकसभा ऑउटर पर ही खड़ी हो गई. फिर किसी तरह जा कर टिकट कनफर्म हुआ और जोड-गुणा-भाग के चलते 5 साल चली बीजेपी-एनडीए पैसेंजर...अटलजी के बाद पहली बार बीजेपी ने नेता नम्बर दो आडवाणी का पीएम का टिकट भी वेटिंग में था पर गाड़ी कौन सी थी एक्सप्रेस या मेल, मालगाड़ी या पैसेंजर लोकल या राजधानी पता नहीं कौन सी गाड़ी है कहां जाना हैं कुछ पता नहीं. बस नागपुर रिजर्वेशन काउंटर से टिकट लिया और चल दिए स्टेशन की ओर, होना क्या था अटलजी का टिकट वेटिंग था तो मौका मिल ही गया किसी तरह, आडवाणी का टिकट तत्काल में वेटिंग था जहां कैंसिंलेशन के चांस कम होते हैं...कारण हमें तो इतना समझ में आता हैं

Thursday, May 14, 2009

कस्बा पर बहस धर्मनिरपेक्षता को चुनौती

रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर नीतीश कुमार के नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करनें पर रवीश कुमार की पोस्ट ' नीतीश नरेंद्र की नौटंकी' में टिप्पणियों का अंबार लग गया और बहस छिड़ी की क्या गलत किया जो अगर नीतीश और नरेंद्र मोदी एक हुए तो रवीश जी को क्या ऐतराज है, अफसोस की बेतुके तर्क देकर तथाकथित पत्रकारों ने इस दोस्ती के नए आयाम खोजे और धर्मनिर्पक्षता को ही चुनौती दे डाली। मैं भी बहस में कूदा और अपने तर्क आपसे साझा कर रहा हूं।

बहुत बहस हुई, लेकिन अफसोस इतना है कि फिर भी ऐसे लोग बहस में शामिल है जो कि कुछ समझना नहीं चाहते,कोई बात नहीं देश भरा पड़ा हैं ऐसे लोगों से जो सोचते हैं कि कांग्रेस ने इस देश को आजाद करवाया और भाजपा ने हिंदुओं के हित की बात की,जिनकी सोच में आज भी भारत के वामपंथी मजदूर-किसान के हक की बात करते हैं, और समाजवादियों का कांग्रेस विरोध शायद कांग्रेसियों से गलबहियों पर भी प्रतीत होता है.ये भारतीय संविधान में अगर लिखा है कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है तो क्या? सारी बात एक बार स्पष्ट हो जाती है कि किसी उम्मीदवार का जीतना उसकी नैतिकता का पैमाना है, जिस प्रकार आप जैसे लोग ही टेलीविजन पर परोसे जा रहे मसालेदार खबरों के व्यंजनों को चटकारें मारकर देख रिमोट से चैनल बदलते समय कह देते हैं कि क्या साला आज-कल इन न्यूज़ वालों को खबरें नहीं मिलती। आप उसमें मीडिया की नैतिकता पर सवाल खड़ा करते हैं कि खबरों के माएनें क्या होनें चाहिए, क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं, क्या खबर हैं और क्या नहीं, और जब आपको टीआऱपी दिखा कर आपके ही मित्र मुंह बंद करते हैं तो आप लोग फिर ब्लॉग पर मीडिया की नैतिकता पर उल्टी करनें लगते हैं, हमें ही खबरों के सिद्धांत बताते हैं.परंतु जब हम नरेंद्र मोदी,कल्याण सिंह या जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार के दंगों में लिप्त होनें की बात करते हैं जो आप केवल मोदी की जीत का हवाला देते हैं कि मोदी को जनता ने चुना है...भाई विरोधामास लोगों के विचारों में हैं, तर्क ये भी दिया जा सकता है कि जगदीश टाईटलर या सज्जन कुमार भी दोषी है,लेकिन जीततें तो वो दोनों भी हैं आपके संघी मदन लाल खुराना और स्व.साहिब सिंह भी उनसे हारे हैं, वो भी भारी अंतर से। तो क्या उन्हें चुनाव में टिकट नहीं दिया जाना चाहिए था, काम तो उन्होंनें भी करावाया था परंतु देश में गलत कृत्य करनेवालें की जीत या धर्मनिरपेक्ष होने का पैमाना उसकी जीत या उसके द्वारा किए गए विकास कार्य नहीं होना चाहिए। अगर देश के सभी सिख कांग्रेस के खिलाफ होते तो कांग्रेस की सरकार पंजाब में बनना इसके पैमानें को तय कर देता हैं कि कांग्रेस द्वारा जो 84 में हुआ वो भुलानें लायक है? या भाजपा की सरकार नें जो 92 में अयोध्या में किया वो भुलानें लायक है? जो सिंगूर-नंदीग्राम में हुआ वो भूलानें लायक है? या जो उड़ीसा के कंधमाल में ईसाईयों के साथ जो हुआ वो भुलानें लायक हैं? मेरे मित्रों आप नीतीश के चुनाव से पहले मोदी के बारे में दिए गए बयान को उड़ीसा में नवीन पटनायक के चुनाव से ठीक पहले बीजेपी से अलग होनें के जैसा कृ्त्य नहीं मानतें? नवीन पटनायक को इस बार कंधमाल की घटना से सबक मिला और चुनाव से ठीक पहले अलग हो गए, और ऐसा ही कुछ हमारे नीतीश बाबू भी कर गए चुनाव के दौरान तो आपकी गाड़ी के पीछे मोदीजी के लिए लिखा था कि 'उचित दूरी बनाएं रखें'पर गाड़ी की पार्किंग एक ही थी, तो उनके साथ ही पार्क कर दी। अब पता नहीं कि ऐन मौके पर नवीन पटनायक भी आपकी पार्किंग में जगह न बना लें। फिर सवाल उठेगी की सही गलत का क्योंकि पटनायक भी कंधमाल के लिए उतनें ही दोषी हैं जितना की संघ परिवार. मेरे संघी पत्रकारों को शायद मेरी बात बुरी लगे पर रवीश भाई के इस लेख से इतना तिलमिलानें की जरूरत नहीं थी, सवाल सहीं-गलत का था चाहे वो कांग्रेस के टाईटलर-सज्जन हों भाजपा के कल्याण,आदित्यनाथ,मोदी या वरूण या सिंगूर और नंदीग्राम में सीपीएम कॉमरेडो द्वारा किया गया अमानवीय कृ्त्य.इन सभी को यदि आप जीत के पैमानें पर रखकर आगे की सोच को स्वीकराते हैं तो क्या गलत हुआ जो वरूण गांधी ने मुस्लमानों के खिलाफ गलत बात कही, क्या गलत अगर योगी आदित्यनाथ मुस्लिम हत्या को पुण्य के तराजू में तोलतें है,जीतते तो वो भी हैं हर बार, और जीत तो वरुण गांधी भी जाएंगे, सीपीएम भी बंगाल में जीतेगी और संघी फिर दिल्ली शहर में कितना चिल्लाते कि 84 के हत्यारे-84 के हत्यारे,पर जीत सज्जन-टाइटलर भी जाते, अगर आपको ये स्वीकार्य है तो बहस जारी रखिए...

Friday, April 3, 2009

'मंडलियों' का नया मंडल

लालू-मुलायम-पासवान का गठबंधन भारतीय राजनीति के लिए क्या संदेश देगा ये तो हमें बाद में पता चलेगा, लेकिन ऐसी क्या जरुरत पड़ी कि आपातकाल के समय के ये तीन समाजवादी, मंडल के बाद आज एक मंच पर साथ दिख रहे हैं? राजनीतिक जानकारों का मानना था कि ये कोई नई खिचड़ी पक रही है, कोई समाजवादी खिचड़ी? जेपी-लेहिया के चेलों का ये नया समाजवाद प्रतीत हो रहा था, जिसमें प्रणय सूत्र बनें थे अमर सिंह. पर हमारे राजनीतिक जानकार क्या जानें राजनीति! भैय्या सही भी है जिसका काम उसी को साझे, मतलब नेताओं कि माया नेता ही जानें... माया से याद आया कि कहीं ये माया फीयर-फैक्टर तो नहीं? पता नहीं लेकिन हमारे कुछ पत्रकार मित्र इसे चौथे मोर्चे का नाम देनें लगें, और कुछ मंडल के दौर का नया प्रारूप बतानें में लगे...लेकिन सच तो शुक्रवार लखनऊ में हुई प्रेस कॉन्फेंस में सामनें आया जब लालू-मुलायम-पासवान ने साझा तौर पर ये बताया कि हमारा ये गठबंधन कोई यूपीए से अलग नहीं हैं, हम तो स्वंय में यूपीए हैं, यूपीए को चलाने वाले लालू-पासवान और यूपीए को बचानें वाले मुलायम-अमर दोनों तो यहां मौजूद हैं तो यूपीए से अलग होनें की बात नहीं हैं।

भाई ये नए समाजवाद का उदय था, जब आप प्रेस कॉंफेंस को देखते तो आपको ऊपर लगे समाजवादी पार्टी के बोर्ड पर लोहिया और मुलायम की तस्वीर के नीचे अमर सिंह और संजय दत्त थे। खैर हमें क्या मुलायम की पार्टी वो चाहें तो अमर सिंह को पार्टी अध्यक्ष बनाएं और संजय को महासचिव, लेकिन पुरानें और नए समाजवादियों के बीच हुए इस समझौते के कारण केवल माया फियर-फैक्टर ही नजर आता दिखाई पड़ रहा हैं, जेपी आंदोलन औप लोहिया की समग्र क्रांति से अपनें राजनीतिक जीवन की शुरुआत करनेवाले लालू-मुलायम-पासवान नब्बे के दशक के आते-आते मंडल के समय में अपनें राजनीतिक यौवन पर रहे, जिसका लाभ उन्हें आज तक मिल रहा है, नब्बे के बाद तीनों ने खुद को अपने राज्य और निर्धारित वोट बैंक तक सीमित कर लिया. लालू बिहार में पिछड़ों और मुसलमानों के सबसे बड़े हितेषी बनें और बिहार में पंद्रह साल राज किया, पासवान बिहार में दलितों और मुसलमानों के डीएम फैक्टर के तले कई हर बार केंद्र में मंत्री रहे सरकार चाहे किसी कि भी हो लेकिन पासवान जी को मंत्री पद जरूर मिलता, और यूपी में मुलायम सिंह ने भी यादव-मुस्लिम समीकरण के चलते यूपी में हमेशा लाभ लिया, और यूनाइटेड फ्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री जैसे अहम पद पर भी रहे. सीधी सी बात ये है कि इन तीनों नेताओं ने अपने-अपने राजनीतिक आस्तित्व को अपने राज्य और वोट बैंक के आधार पर ही केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर ही बढ़ाया, किसी लोहिया-जेपी की विचारधारा के नाम पर नही, वहीं इनके साथ चले खाटी समाजवादी जार्ज फर्नांडिज, सुरेंद्र मोहन आज कहां है आप हम सभी जानते हैं। खैर ये तो हम सभी जानते हैं कि इस गठबंधन के पहले लालू-पासवान की बिहार विधानसभा चुनावों में कितनी दोस्ती थी जिसका लाभ एनडीए को मिला। और समाजवादी पार्टी जानती है कि जो स्थिति बिहार में उनकी है, वही स्थिति लालू-पासवान की यूपी में है और यूपी के दलित वोट बैंक को तोड़नें के लिए पासवान एक विकल्प हो सकते हैं...लालू के साथ आनें से समाजवादी पार्टी को यूपी में तो खासा लाभ नहीं मिलेगा पर बिहार में शायद उपस्थिति मिल जाए। लेकिन ये सारी कवायद किस लिए हैं इसका शायद इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुलायम को भी पता है कि इस बार के आम चुनावों में उनका वो जलवा नहीं दिख पाएगा जो कि पिछले लोकसभा चुनावों में दिखा था क्योंकि राज्य में सरकार का जो लाभ वो पिछले लोकसभा चुनावों में ले गए थे इस बार वो संभव नहीं है, न तो राज्य में सरकार उनकी है और न ही बाहुबलियों का साथ। यही स्थिति कुछ लालू-पासवान की भी है, हालांकि ये बात भी छिपी हुई नहीं है कि यूपी की मुख्यमंत्री मायावती का कद राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ा है औऱ इन तीनों नेताओं का कम हुआ है। आज इन सभी नेताओं को यूपी, बिहार, झारखंड की कुल सीटों का एक साथ अनुमान लागाना पड़ रहा है क्योंकि डर है कि कहीं मायावती की सोशल इंजीनियरिंग इनके वोट बैंक में सेंध लगाए उससे पहले हम सभी केवल धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर ही एक हो जाते है शायद थोड़ा लाभ मिल जाए, लालू-पासवान भली-भांति जानते हैं कि बिहार विधान सभा चुनावों वाली गलती दोहरानें से घाटा उन्हें ही उठाना पड़ेगा और लाभ इस बार एनडीए को नहीं तो मायावती को मिल सकता है, इसलिए राजनीति में कोई बैरी-बंधु नहीं के सिद्धातों के तले इस समझौते को परवान चढ़ाया। खैर पल-पल बदलते इस राजनीतिक घटनाक्रम में मैडम माया ने अपने पत्ते अभी खोले नहीं हैं देखना ये हैं कि आने वाले कल में हमें कौन से नए राजनीतिक समीकरण देखनें को मिलेंगे

नवीन कुमार 'रणवीर'

सांप्रदायिक राजनीति का नया पिस्सू वरूण गांधी...

सांप्रदायिक राजनीति का नया पिस्सू वरूण गांधी, जी मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा? कभी हमारे देश में दो बीमारी बड़े जोरों की फैली थी वो थी मलेरिया और डेंगू, खैर आजकल भी कभी कभी ये दोनों अपना प्रकोप देश के की हिस्सों में फैला देती है लेकिन अब लोग पहले से ही सजग हो जाते हैं. समझनें वाले तो इतने में ही समझ गए होंगे कि मेरा इशारा कहां है, जो नहीं समझे वो इस लेख में आगे समझ जाएंगे. खैर हम बात कर रहे थे वरुण गांधी की, भगवा ब्रिगेड का नया पिस्सू, इनकी पार्टी के बड़े नेता पहले ही देश में मलेरिया और डेंगू के मच्छरों की भांति सांप्रदायिकता का ऐसा डंक मारते थे कि लोगों को अस्पताल तक जाने की नौबत नहीं आती थी, वे बेचारे वहीं दम तोड़ देते थे. देश के कुछ हिस्से तो मानों इनका अड्डा बन गए थे, जब चाहा तब किसी को भी काट लिया करते , लेकिन एक बात में ये मलेरिया और डेंगू के मच्छर से पूरी तरह भिन्न थे .वो जो डेंगू या मलेरिया का मच्छर होता ...है वो तो बिना किसी धर्म-जाति जाने काटता था, परंतु ये जो भगवा ब्रिगे़ड के मच्छर हैं ये धर्म जानकर अपना शिकार बनाते. उत्तर प्रदेश शुरुआत में इनका सबसे बड़ा शिकार हुआ, इसके बाद मुंबई फिर गुजरात, फिर उड़ीसा, समय-समय पर मध्य प्रदेश भी इनका शिकार बनता रहा है.जिस तरह से सरकार डेंगू-मलेरिया के मच्छरों से बचने के लिए उपाय बताती है, उसी प्रकार हमारे कुछ धर्मनिरपेक्ष पत्रकार मित्र और सामाजिक कार्यकर्ता समय-समय पर जानता से एहतियात बरतनें को कहते है. लकिन जिनके पास धर्मनिर्पेक्षता की मच्छरदानी न हो उन्हें तो ये काट ही जाते थे. देश के कई राज्यों में इस मच्छरदानी का समय-समय पर टोटा पड़ ही जाता है, जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश. आजकल इस सांप्रदायिक मलेरिया-डेंगू गैंग यानि भाजपाइयों के पास पुराने मच्छरों के डंक प्रभावहीन हो गए थे. इनमें प्रमुख पीएम इन वेटिंग, अयोध्या के कल्याणक सिंह, सांप्रदायिक कटुता का औजार विनय कटियार, वैमनस्यवाद के गुरू आदित्यनाथ-नरेंद्र मोदी रहे हैं. परंतु जनता ने पहले से सुरक्षा बरताना शुरू कर दिया तो, बेचारे सिमट कर आपस में ही डंक मारने लगे और हश्र तो आप देख ही रहे हैं. भगवा ब्रिगेड के नेता खुद से ही पीएम और सीएम हो जाते हैं, शुक्र है कि आगे इन वेटिंग भी लगा लेते हैं वरना तो... आज कल एक नया पिस्सु इस सांप्रदायिक डेंगू-मलेरिया गैंग ने भेजा है जिससे कि जनता को पता भी न चले और डंक मार कर फिर से इस देश को जख्मी कर दे, और करा दे दंगों के अस्पताल में भर्ती...लेकिन वरुण बबुआ आपके गैंग के बड़े मच्छरों का हाल तो आपनें देखा ही है जो सपना आप आज देख रहें हैं वो सपना आपके गैंग के बड़े कीट कब से देखते हुए आज तक आस लगाए बैठे हुए हैं. लेकिन इस देश की जनता को आज फिर वही अयोध्या, फिर वही मुंबई, फिर वही गुजरात, और फिर वही कंधमाल दिखानें की जो आपकी कोशिश वो वही बेवकूफी है, आपकी पार्टी और आप बाद में चाहे जितनी भी सफाई दे दें, लेकिन लोग जानते हैं कि आपकी पार्टी हर बार की तरह इस बार भी सत्ता पानें के लिए अपनी ओंछी सोच और वैमनस्य की विचारधारा पर जो नफरत और सांप्रदायिकता का महल बनाना चाह रही है उसकी ना तो ईटों में दम हैं, न ही गारे में. क्यों कि वो ईंट और गारा दोनों ही खोखले हैं आपकी पार्टी की विचारधारा की तरह, जिसमें न तो राष्ट्रवाद जिसकी आप दुहाई देते है न ही समाजवाद, जिसमें केवल एक ही वाद है वो है वैमनस्यवाद...

Friday, March 6, 2009

स्लमडॉगस् की सच्चाई...

ऑस्कर तक के सफर के बाद, जीवन की सच्चाई से रूबरू होते असल जिंदगी के किरदार. जी हां बात कुछ अटपटी सी लग रही होगी आपको, शायद समझ में नहीं आ रहा होगा कि मैं किस कि बात कर रहां हूं?
दोस्तों दुनिया भर में धूम मचानें वाली फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर की कहानी से लेकर किरदार तक भारतीय थे, यहां तक की गीत-संगीत, रिकार्डिंग और तमाम वो काम जो कि भारत में संभव हो सकते थे वो यहीं किए गए. फिल्म में काम करने वालों में कुछ तो नए लोग थे जिन्होंने शायद कभी अंदाजा भी नहीं लगाया होगा कि वो कभी किसी फिल्म में काम करेंगे, और कुछ भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के कुछ ऐसे नाम थे जो कि किसी तारीफ के मोहताज नहीं है.
खैर फिल्म विदेशी निर्देशक द्वारा बनाई गई जिसकी कहानी भी एक भारतीय लेखक के नॉवेल पर आधारित थी. मोटी बात ये कहें कि इस विदेशी फिल्म को भारतीयों के योगदान के बिना पूरा कर पान शायद तो संभव नहीं होता.
जिसमें कि सबसे अहम भूमिका यदि किसी की थी तो इस फिल्म की कहानी को सच साबित करते फिल्म के पात्रों के चुनाव की. फिल्म मुंबई की झुग्गी-बस्ती धारावी पर केंद्रीत है, जहां के बच्चे किस प्रकार अपनें को जिंदगी की पाठशाला में पढ़ाते है और फिर जीवन की किसी भी परिस्थिति में अपनें विवेक से निर्णय लेते है, जिसमें कि किसी का कोई योगदान नहीं होता, और यदि किसी का उनके जीवन में योगदान होता है तो वो भी सिर्फ स्वंय जिंदगी का....वो जिंदगी ही होती है जो कि इन बच्चों को जिंदा रहना कमाना-खाना अपने को बचाना, चालाक-चतुर बनाती है. खैर फिल्म में इस किरदार को जीवांत उतारनें के लिए विदेशी निर्देशक शायद हमारे बॉलीवुड के निर्देशकों से बाजी मार जाते है. और विश्व ख्याति प्राप्त कर हमारे देश के उन कलाकारों को छोड़ जाते है उसी झुग्गी की जिंदगी जीनें के लिए जिसे शायद वो अब तो नहीं जीना चाहते होंगें. लेकिन विदेशी निर्देशको का इसमें कोई कसूर भी तो नहीं है, वो अपनी एक फिल्म बनानें के लिए आऐ थे जिसकी कहानी भारतीय थी तो कलाकार भी भारतीय चाहिए थे, वो भी ऑरिजनल दिखनें वाले तो झुग्गी के बच्चे ले लिए, रहा काम पूरी फिल्म की शूटिंग का, तो वो तो किसी भी संघर्षरत कलाकार से करवा लेंगे.
दोस्तों बात पते कि ये है कि फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में गरीब झुग्गी के बच्चे सलीम का किरदार निभानें वाले 10 साल के अजरुद्दीन ने जो चरित्र निभाया है फिल्म में उसकी तारीफ सबनें की, लकिन ऑस्कर के रेड कार्पेट से लोटनें के बाद अजरुद्दीन की जिंदगी फिर से उसी झुग्गी में रह गई जो कि फिल्म में काम करनें से पहले थी. शायद फिल्म की शूटिंग के दौरान उसनें अपनें को इन बड़े-बड़ें नामों में जोड़ने की बात तो नहीं सोची होगी पर अपने इस झुग्गी के जीवन से तो कुछ बेहतर ही सोचा होगा. बांद्रा के गरीब नगर झुग्गी-बस्ती में रहनेंवाले अजरुद्दीन के जह़न से ऑस्कर की चकाचौंध की रौनक अभी हटी भी नहीं थी, कि उसके पिता इस्माइल ने अजरुद्दीन की मीडिया के सामनें ही पिटाई कर दी. ये वो हकीकत थी जिसनें अजरुद्दीन को
ऑस्कर की दो पल की अमीरी से गरीब नगर की हकीकत से रु-ब-रु
करा दिया था. हमारे देश में हर साल न जाने कितनें अवार्ड दिए जाते है, हर साल एक नए नाम से अवार्ड दिया जाता है, एक ही फिल्म परिवार को न जाने कितनें अवार्ड मिल जाते है, और बेटी-बेटा फिल्मों में चल पड़ते है.
कैसे न कैसे करके हमारें निर्माता-निर्देशक चले जाते है उनकी दहलीज पर उन्हें साइन करने के लिए. और वे बन जाते है स्टार..
भारतीय फिल्म इतिहास में कितनें ही ऐसे स्टार होंगे जो कि बादशाह, किंग, शहंशाह, हीरो न.1 खिलाड़ी, सुपर स्टार औऱ न जाने कितने ही उपनामों से जानें जाते है. लोकिन ऑस्कर के उस स्टेज तक पहुंचनें में किसी को कामयाबी आज तक नहीं मिली. पर एक झुग्गी के एक लड़के में शायद ऑस्कर की नहीं बल्कि अपने लिए एक बेहतर जिंदगी की आस थी,
लेकिन आठ ऑस्कर जितनें वाली फिल्म का बेहतरीन हिस्सा होनें के बावजूद अजरुद्दीन की सुबह में वही बात थी जो कि फिल्म के बारे में जाननें से पहले थी. म्यूनिसिपल स्कूल में पढ़ने वाला अजरुद्दीन शायद सोच रही होगा कि अब उसके दिन फिर जाएंगें. पर ऐसा हुआ तो नहीं. ये कोई “भारतीय रिऐलिटी शो थोड़ी न है जिसमें की आपकी मुंबई का ही कोई नेता आप से खुश होकर आपको फ्लैट गिफ्ट कर दे” न ही आप कोई लड़की है जिस पर की कोई कृपा करें. और रही बात भारतीय फिल्म निर्माताओं की तो वे तो पहले ही उन कलाकारों को लेते है जिनसे कि उनकी फिल्म को पैसा मिल सके. निर्देशक तो पहले से ही सुपर स्टार से कम में बात ही नहीं करते, जो छोटे निर्देशक हैं भी वो बेचारे बिना स्टार पुत्र-पुत्री जो लोग फिल्मों में जो लोग काम कर रहें है वे उनके अन्नदाता है, हां कुछ लोग है जो कि अपनें को कॉमर्शियल सिनेमा से अलग मानते है ऐसे भी निर्देशक है, और भाई लोग बनाते भी नेशनल अवार्ड वाली फिल्में है. पर आपने कोई एफटीआईआई से या एनएसडी से एकटिंग में डिग्री भी तो नहीं की न...
तो थोड़ा मुशकिल है भाई अजरुद्दीन के दिन फिरना...अभी तो बांद्रा के गरीब नगर को ही अपनें जीवन की सच्चाई मानों.
हमारे देश में शायद जीवन की सच्चाई पर फिल्में नहीं बनती है, और अगर बनती भी है तो निर्देशक फिल्म के किरदारों के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर पाते या फिर वो भारत की उस सच्चाई को बतानें से डर जाते है जो कि विदेशी फिल्मकार या भारतीय मूल के विदेशी फिल्मकार भारत में आकर बता जाते है, और ऐसा बता कर जाते है कि भारतीय फिल्मकारों के अच्छी फिल्म के विदेशी सपनें को वो स्वंय इस देश में यहां की कहानी, यहां के चरित्र, यहां के ही साथियों-सहयोगियों द्वारा सच साबित कर मुंह चिढ़ाकर चले जाते है. और शायद यही चिढ़ और खीज हमारे बॉलीवुड के फिल्मकारों को भारतीय कहानी पर आधारित विदेशी फिल्मों में काम करनेंवालों भारतीय कलाकारों को भारत में उपजनें नहीं देती. यदि कोई सक्षम इंसान भी कोई ऐसा काम करता है जिससे किस देश का क्या उसके राज्यभर में उसका नाम हो जाए तो न जाने कितनें ही लोग, कंपनियां, फिल्मवाले औऱ बहुतेरे ऐसे लोग जो कि अपने नाम को उस व्यक्ति के साथ जोड़ना चाहते है लंबी-लंबी कतारे लगाए खडे हो जाते है, लग जाते है उसकी सक्षम जिंदगी को वैभव और विलासिताओं से लैस करनें में. हमारे मीडियाकर्मी भी अपनी टीआरपी की गिनती बढ़ानें में शायद जिंदगी की उस हकीकत को भूल जाते है जिसे जिदंगी का संघर्ष कहते है. आपको शायद याद हो कि नहीं लेकिन सन् 1988 में एक भारतीय मूल की विदेशी फिल्मकार मीरा नायर ने एक फिल्म बनाई थी सलाम बाम्बे जोकि उस समय में लीक से हटकर बननें वाली फिल्मों में मील का पत्थर साबित हुई. फिल्म में चाय बेचनें वाले बच्चे कृष्णा के किरदार को जीवांत रूप दिया 11 वर्षीय शफीक ने, सलाम बाम्बे ने देश में ही नहीं विदेशों में भी खूब वाहवाही बटोरी. फिल्म की निर्देशक एनआरआई थी और कहानी भारतीय (स्लगडॉग की भांति). सलाम बाम्बे ऑस्कर के लिए भी नांमांकित हुई. लेकिन मिला नहीं, फिल्म में कृष्णा का किरदार निभाने वाले शफीक को बेहतरीन अभिनय के लिए बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. उस समय भी मी़डिया में शफीक के खूब चर्चे थे. पर उसके बाद न तो शफीक का पता चला की वो कहां है न ही वो किसी फिल्म में नजर आया. शायद हमारे देश में उसके बाद ऐसी फिल्में बनना बंद हो गई थी, आज जब किसी विदेशी फिल्मकार को भारत की कहानी पर फिल्म बनानें का मौका मिला तो शफीक की उम्र 32 साल हो गई. तो इसलिए बेचारा आजकल बंगलुरु की सड़को पर रिक्शा चलाकर अपना और अपनें परिवार का पेट पाल रहा है. क्या वो कोई स्टार पुत्र होता तो आज भी उसका ये हाल होता? ऐसा नहीं हे कि केवल स्टार पुत्र ही इस बॉलीवुड में काम पाने में सफल हुए है. परंतु ऐसा क्यों है कि हमारे यहां के निर्देशकों को हमारे देश में हुनर या तो गोरे चिकनें चेहरों में नजर आता है, या कुछ तथाकथित कला फिल्मकारों को केवल एफटीआईआई या एनएसड़ी में. जिस इंसान को जिंदगी ने एक्टिंग सिखा दी उसे कलाकार मानने को कोई राजी नही होता. जैसा कि इस फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में दिखाया गया है. कि बिना किसी डिग्री के कोई व्यक्ति कैसे इतने सारे सवालों के जवाब जानता है. जबकि उस जमाल से ज्यादा पड़े लिखे लोग उस प्रतियोगिता में जाने का सपना मात्र ही देख पाते है. मुझे हमारे फिल्मकारों की स्थिति इस फिल्म के पात्र अनिल कपूर की तरह लगती है, जो कि किसी भी कीमत पर ये माननें को तैयार नहीं होते की हुनर किसी कॉलेज या संस्थान मात्र से नहीं आ जाता, कुछ तो कुदरती भी होता है और कुछ जिंदगी की इस यूनिवर्सिटी में इंसान खुद सीख जाता है.
देखते है कि आने वाले दिनों में अजरुद्दीन का हाल भी शफीक जैसा होता है या उसके दिन शायद फिरेंगे. खैर अभी तो अजरुद्दीन की झुग्गी टूटनें के लिए ऑ़डर आया है. जो कि शायद उसकी दिनचर्या का ही हिस्सा है....

नवीन कुमार‘ रणवीर’

Monday, March 2, 2009

लोकसभा चुनावों की घोषणा

लोकतंत्र के महासागर में,
लेकर चले सब अपनी नाव...
कोई जहाज तो, तो कोई बेड़ा,
कोई लगता कश्ती दांव
जाति-धर्म को चप्पू थामों,
पड़े फिर कैसे लहरी घाव
लोकतंत्र के महासागर में...
छोटे बड़े सारे घाघ
भिड़ेंगे ले के एक ही राग...
हम सच्चे है-हम सच्चे है
दोनों लेंगे वादे साज...
घोटालों के बड़े बवंडर,
जामै फसते नेता अंदर
जे ऐसों सागर है भैय्या,
जामै बनें नेता खिवय्या...
सभी जुतें है करने राज
हर कोई चाहे पहने ताज
ताज-राज की जे लड़ाई
जामै जन की शामत आई
नेताअन एक ही काम
भीड़े जो जनता सुबह-शाम
उन्है मिलैगो पांच साल को आराम...
ये लोकतंत्र को सागर ...
भर लो पांच साल की गागर
पग मैं पड़ैगों कैसे कांकर
ले लो वोट घर-घर जाकर,
अपनी-अपनी नैय्या संभाले
सगरै नेता लगे रिझाने
वोट दे दो, वोट दे दो
रोज लगैगो वोट को भाव
लोकतंत्र के महासागर में
लेकर चले सब अपनी नाव...

नवीन कुमार 'रणवीर'

Wednesday, February 25, 2009

प्यार क्या है...?

दोस्तों,
प्यार करना आज के इस बदलते परिवेश में खाना खानें जैसा प्रतीत होता है, जैसे किसी को भूख लगी तो उसने खाना खा लिया, बाद में और भूख लगेगी तो और खा लेंगे. प्यार एक सुखद अनुभूति से जीवन की दिनचर्या का हिस्सा कैसे बन गया? सवाल ज़रा टेढ़ा है...लेकिन जायज़ है... आज हमारे साथी प्यार तो करते है, लेकिन उसे निभाने में बेचारे पहली बाधा में ही हांफ कर हार मान जाते है..हो भी क्यों न ठीक है किसी से वादा ही तो किया था ना, कोई बात नहीं आगे और मिलेगें...दोस्तों सवाल ये है? कि जब हम प्यार में होते है तो हमें सब कुछ सही लगता है, पर अचानक हमारी आंखें खुल जाती है, हमारा दिमाग दिल से ज्यादा काम करने लगता है, हमें सही और गलत की नई-नई परिभाषाऐं आने लगती है. हम यह निर्णय ले लेते है कि, हमारे माता-पिता की खुशी भी कोई मायनें रखती है. हम अपने प्यार, अपने विश्वास पर खरे नहीं उतर पातें. पर मेरे दोस्तों हम अपनी मर्जी से आपने प्यार को मारते है. हमारे में वो क्षमता नहीं होती की हम अपने प्यार प्रति समर्पित रहें, हमारे पास कई विकल्प जो आ जाते है, और हमारा दिल भी भर जाता है अपनें प्यार से, अब कुछ नया हो जाए...फिर हम अपनें दिल को कुछ इस तरह तस्ल्ल्ली देते है कि यार किस-किस को नाराज करते, माता-पिता से बढ़कर तो नहीं है न प्यार...हां मेरे दोस्त माता-पिता से तो बढ़कर नहीं है प्य़ार, पर ये किस माता-पिता ने कहा था कि प्यार करो... जब तो लगा कि कोई नहीं साथ चलेंगे, साथ लड़ेंगें, पर दिल कि दहलीज पर ये अचानक दिमाग की दस्तक कैसे हो गई. इसका जवाब हर उस इंसान के पास है जो अपने प्यार की कसौटी पर खरे नहूीं उतर पाएं.. दोस्तों प्यार निभानें का नाम है... करते तो सभी है...निभानें में होता है त्याग...और जो त्याग न कर पाया हो उसे कभी जिंदगी में प्यार नहीं मिलता. जिसके दिल में अपनी भावनाओं की कोई इज्जत नहीं वो समाज में अपनें माता-पिता की इ्ज्जत की दुहाई देकर अपने प्यार को खत्म करना चाहे तो वो उसकी सबकी बड़ी गलती होती है, जो अपनें प्यार का सगा न हो सका, वो अपने माता-पिता या पति का क्या सगा हो पाएगा...प्यार भावनाओॆं का सागर है जिसमें कि एहसासों की शांत लहरें भी आती है,और समाजिक प्रतिबंधों सी तेज लहरें भी, लेकिन तेज लहरे क्षणिक होती है, अगर साहिल उन से डरकर पीछे हटता है तो उसका नतीजा तबाही है, लेकिन यदि वो उसे झेल जाए तो वह उसका उन शांत लहरों के लिए प्यार और समर्पण है...

Monday, February 9, 2009

गुंडई के विरुद्ध...

कर्नाटक के मंगलोर स्थित एक पब में युवाओं पर हुआ हमला हमारे लोकतंत्र के 60वर्षों की कोई नई कहानी नहीं बयां करता, बल्कि ये घटना हमारे सामने वो सच्चाई प्रस्तुत करती है जिससे या तो शायद हम परिचित नहीं थे या हम जानना नहीं चाहते. आज भी देश में ऐसी सोच के लोग मौजूद है एक बड़ी शक्ति के रूप में जो कि खुद को राष्ट्र, समुदाय, क्षेत्र, आदि का हितेषी बता कर कभी भी, कहीं भी कानून को हाथ में लेकर किसी की भी पिटाई कर चलता बनता है और पुलिस प्रशासन शायद इसे देश हित में समझकर कोई कार्यवाही नहीं करता. पहले ये लोग धर्म, समुदाय, भाषा, क्षेत्र, के नाम केवल गरीब, मजदूर, लोग ही इनके शिकार होते थे. पर अब समय बदलने के साथ-साथ इनके शिकार में भी परिवर्तन आया है. आजकल ये लोग पढ़े-लिखे नौजवानों और लड़कियों पर अपनी शौर्यता दिखाते हैं. खैर ऐसा नहीं है ये लोग पहली बार नौजवानों पर अपनी गुंडा गर्दी दिखाई है. बीते कुछ वर्षों की यदि हम बात करें तो हम पाते है कि नौजवान युवक- युवतियों को पहले ये लोग केवल वेलेंटाइन डे पर ही अपनी गुंडागर्दी दिखा कर बेइज्जत करते. औऱ हवाला देते खुद के भारतीय संस्कृति के रक्षक होनें का. और ऐसी ही सोच वाले उनके कुछ भाई क्षेत्रीयता के नाम पर किसी को भी पीटकर दौडा-दौडा कर मारते, और कुछ भाई गिरजाघरों पर हमलें कर इसे धर्म हितकारी कार्यवाही करार दे देते, ऐसी ही सोच हमारे उत्तर-पूर्वी मित्र भी रखते है वो भाषा के नाम पर मार काट मचाए हुऐ है. लेकिन आज इस सोच ने और भीषण रूप ले लिया है. आज देश के सामने कई चुनौतियां है लेकिन हम आज भी केवल एक सोच को खोज रहे हैं. सोच संवैधानिक हो? हमारे देश में अपने द्वार की गी गुंडागर्दी को सही साबित करने वालों को शायद ये नहीं पता की इस देश में हर किसी को अपनी मर्जी से जीनें का अधिकार है. चाहे वह महिला हो या पुरूष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक. पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ सभी को अपनी मर्जी से अपना जीवन निर्वाह करने का अधिकार है. फिर क्यों हम ऐसा काम करते है जिसे करने के लिए हमारा संविधान हमें इजाजत नही देता. क्यों हमारी सोच समय बदलने के साथ-साथ और भी ज्यादा छोटी होती जा रही है. क्यों ये हिंदू सेना, राम सेना, शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, बजरंग दल, अभिनव भारत, उल्फा और न जाने कितने ही इनके जैसी सोच रखनेवाले संगठन अपने देश में नफरत और वैमनस्य का घिनौना प्रचार कर रहे है. सारा मामला सहयोग, सहायता और सौहार्द से परे हो स्वार्थ, सामंतवाद औऱ स्वामित्व की कोठरी में आ कर बंद हो जाता है. कोई महिला पर अपनी रंगदारी दिखाता है, तो कोई दलित-आदिवासी पर, कोई किसी दूसरे राज्य में रोटी कमाने गए मजदूर को पीटकर भगा देता है तो कोई किसी को बहुसंख्यक होने दबंगई दिखाकर काट देता है. अगर कोई लड़की पब में नाचती है तो किसी को क्यों ऐतराज हो ? अगर कोई अपने धर्म को मान रहा है, अपने धार्मिक क्रियाकलाप करता है तो किसी को क्यों बुरा लगे ? कोई महिला केवल घर में ही क्यों रहे और अपनी मर्जी से क्यों न जीए ?
क्यों किसी गरीब मजदूर रोजी-रोटी कमाने के अधिकार से ही वंचित रखा जाए? क्यों भाषा के नाम किसी को सरे आम गोला मारी जाए? क्यों जाति के नाम पर किसी को सर पर जूते रखकर जाना पड़े?
दोस्तों ये वो सवाल है जो हमारे 60 वर्षों के लोकतंत्र के सामने मुंह चिढ़ाए खड़े है...जवाब हमारे पास पास होते हुए भी नहीं है...।

नवीन कुमार ‘रणवीर’
2007-08
भारतीय संचार संस्थान दिल्ली

Sunday, February 8, 2009

भारतीय जनसंचार संस्थान का पूर्व छात्र मिलन समारोह

भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के छात्रों ने पूर्व छात्र मिलन समारोह आयोजित किया. जिसमें की संस्थान से हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करनेवाले कई छात्रों ने आकर अपने पूराने दिनों को ताजा किया और संस्थान के छात्रों के साथ अपने पुराने अनुभवों को बांटा...हर कोई अपने पुराने दोस्तों से मिलने के लिए उत्सुक नजर आ रहा था. किसी की निगाहों में पुरानी दिनों की यादें ताजा दिखी, तो कोई अपने लिए नई राह की तलाश में व्यस्त दिखाई दिया.... तो कोई संस्थान में बिताए अपने पुराने दिनों की कहानी सुनाने को बोताब था.... किसी ने अपने प्यार के पाने के लिए संस्थान का धन्यवाद दिया... तो कोई अपने गुरुजनों के साथ के अनुभवों को बता रहा था जिसे की शायद वो कभी न भूला पाया. हर कोई खुश था... मैं भी.. समय कम होने की वजह से मुझे वहां अपनी क्लास के अनुभवों को बांटनें का मौका न मिला इस लिए आपसे वो पल बांचना चाहता हूं...
मेरा बैच तो इससे पिछला ही था (२००७-०८) तो मेरे साथियों की संख्या सबसे ज्यादा थी, पर फिर भी सभी ४० नहीं थे... हो सकता है कि अगले साल वाला बैच भी शायद ऐसा ही कोई आयोजन करें, तब हमारे बैच के सदस्यों की संख्या शायद और भी कम हो जाएगी... एक सवाल हमारे बैच के छात्रों के दिलों में था ओर कुच की जुबां पर भी आ गया कि, हमारे साल में हमनें ऐसा कोई आयोजन क्यों नहीं किया था? जवाब भी हमारे सब के पास था, जो क्लास पूरे साल सिर्फ सी.आर के चुनाव को लेकर राजनीति का शिकार रही, उसमें एक सफल आयोजन होना चुनौती पूर्ण था. हमारी क्लास (2007-08) में राजनीतिक विचारधाराओं का इतना बड़ा द्वंद होता था की कुछ लोगों के लिए वह प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता और यही कारण था की पूरे कोर्स के दौरान हमारा कोई एक नेता ही नहीं बन पाया था, जो किसी आयोजन को करने की जिम्मेदारी ले और क्लास के सभी लोग उसका समर्थन करते.
हर बात का निर्णय हमारे टीचर्स के सामने होते थे। हर बात एक विवाद का विषय बनती थी, पहले दिन से ही लोगों ने बिहारवाद, भूमिहारवाद फैलाना शुरु कर दिया। जिसके मन में ऐसे विचार नहीं थे वो भी बोए गए, कहीं कोई बिहारी नहीं है तो भूमिहार तो है, बस किसी न किसी तरह उसे अपने साथ लिया जाए... कई बार कोशिश ये हुई की कैसे सत्ता हमारे हाथ आए, मतलब कुछ लोगों के लिेए वो क्लास एक राजनीतिक अखाड़ा बन गई थी, जिसमें की गुटबाजी के बिना शायद नींद न आना संभव न हो पाता आप सोच रहें होगे की मैं अपनी क्लास की बुराई क्यों कर रहा हूं॥ पर दोस्तों ये वो सच है जो मैनें महसूस किया, मैं मूल रूप से राजस्थानी हूं मेरे पूर्वज ७० साल से दिल्ली में रह रहें है। मुझु लोग दिल्ली वाला कहते और बताते की दिल्ली के लोगों के बारे में उनके विचार कैसे है, फिरल मेरे बारे में कहने के लिए उनका तर्क था होता की ' तुम तो राज्सथान से हो ना इसलिए तुम ठीक बंदे हो वरना तो साले दिल्ली वाले सभी मतलबी होते है'।
मुझे लगा कि आगे देखेंगे की कोई कितना मतलबी होता है...१० दिनों के अंदर जोड़तोड़ की राजनीति पनपने लगी, कहीं क्षेत्रवाद की गंध ने सारी क्लास को सड़ा कर रख दिया था, तो किसी को जाति के नाम पर अपने साथ मिलाने की कोशिश हो रही थी, जिसके साथ इन दोनों में से कोई संबंध नहीं बन पा रहा था तो वैचारिक रूप से अपने साथ मिलाया जाए मतलब आप भी संघी हम भी संघी, ये भी नहीं बन पा रहा तो आरक्षण के विरोधी हो या समर्थन में इस मामले में भी बड़ी साख बनी हुई थी। ये भी नहीं तो सवर्ण और दलित पिछड़ा अलग, अल्पसंख्यक तो कोई था ही नहीं।
क्लास के पहले ही दिन कुछ राजनीतिक मठाधीशों ने लोगों के उपनाम जांचना शुरू कर दिए थे कौन-कौन किस-किस जाति का है, कौन राज्य का है।
यहां तक की क्लास का काम जो एसाइंमेंट या जो प्रैक्टिकल काम मिलता था उसे पूरा करने के लिए भी लोगों को अपने जातिबंधुओं का ही ग्रुप चाहिए होता था। क्या भाई ऐसा तो शायद उस दिल्ली में भी नहीं होता जिसे आप गाली देते हुए आप अपने राज्य से आए और आज भी गाली ही देते हुए यहां कमा खा रहें हैं। ऐसा नहीं है कि सभी ऐसे लोग थे, पर जो नहीं भी थे उन्हें भी उनके जैसा होना पड़ा।
खैर बात सीआर के चुनावों की हो रही थी हम आगे निकल आए... तो क्या हुआ की चुनाव बड़े ही गजब हुए थे भाई, मेरा तो उस दिन जन्मजिन था तो मैं तो आया नहीं था, अचानक चुनाव करवा दिए गए, संख्या के अनुपात में बिहार, उ।प्र के छात्र सबसे ज्यादा थे, उसके बाद कुछ झारखंड़ थे, तो कुछ
हिमाचल से, दिल्ली से दो तीन थे, दो राजस्थान से। चुनाव में जीत उसी ग्रुप के प्रत्याशी की हुई जिसके लिए ये सारी जोड़-तोड़ शुरू हुई पर मामला बिगड़ गया। जिसे मनमोहन सिंह बना कर बिठाया, उसके लिए सबके हित की बात करना मठाधीशों को भारी लिए भारी पडने लगा था, एक महीनें के बाद दुबारा चुनाव के लिए अध्यादेश जारी कर दिया गया था... पर बात को किसी तरह संभाला गया...
परंतु पूरे कोर्स के दौरान बेचारी सीआर को हटाने का जुगाड़ करते नेताजी ने क्या नहीं किया...
मुझे समझ नही आया की अब अचानक ये क्या हो गया कि जिस लड़की को सीआर बनवाने के लिए बिहार को लामबंद किया गया, भूमिहार को लामबंद किया गया, और जो लड़की प्रत्याशी थी वो ब्राह्मण थी हिमाचल पीठ तक के मठाधीशों ने समर्थन किया था, पर आज केवल वहीं दो पांच लोग उसे हटाना चाहते है, जबकि उसके विरोधी दौबारा चुनाव नहीं चाहते थे... क्या यार पूरा साल ये सब करते रहे कुछ लोग....अब समझ नहीं आता की दिल्ली वाला कितना बुरा हो सकता है या किसी और राज्य का नागरिक, मेरे दोस्त आज भी तू कहीं भी हो ये दिल्ली वाला तेरे लिए अच्छा ही सोचेगा क्यों की कभी साथ बैठ एक थाली में खाया था, इससे तो बड़ा कोई क्षेत्र या राज्य या देश नहीं ,कोई राज्य, बोली, भाषा, जाति, धर्म, बुरा नहीं होता बुरी होती है सोच, बुरे् होते हैं आपके कुछ अनुभव, जिसे की आप अपनी जिंदगी का नियम बना लेते हैं... मैं आप से मिला तो क्या मैं आपके पूरे राज्य या जाति के बारे में एक विचार रखूं...
पर मैनें अपनी जिंदगी के सबसे हसीन पल बिताए आईआईएमसी में....